सूत्र :उपाधिर्भिद्यते न तु तद्वान् II1/151
सूत्र संख्या :151
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : उपाधि के बहुत से रूप होते हैं और उपाधि को ही नाना रूपों में बोलते हैं लेकिन उपाधि वाला पुरूष एक ही है। यद्यपि अनेक नव्य वेदान्ती यह कहा करते हैं, कि एक आत्मा का कार्य कारण उपाधि में में प्रतिबिम्ब के पडने से जीव ईश्वर का भेद है और प्रतिबिम्ब आपस में पृथक् होने से जन्मादि व्यवस्था भी हो सकती है यह कथन इस प्रकार अयोग्य है इसमें भेद और अभेद की कोई कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि बिम्ब (परछाई) वाला प्रतिबिम्ब परछाई इन दोनों को बिना पथक् माने विम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो ही नहीं सकता, और जीव को ब्रह्य का प्रतिबिम्ब मानते हैं, तो देखते हैं कि प्रतिबिम्ब जड़ है। अतएव पुरूष को भोक्ता, बद्ध, मुक्त कभी नहीं कह सकते हैं, और जीव ब्रह्य की एकता के विषय में हानि होगी। अतएव सांख्य मतानुसार, जीव ब्रह्य को एक मानना भी नहीं हो सकता है। एक ही जीव रूप को धारण करता इस पक्ष का खण्डन इस सूत्र से होता है-