सूत्र :भोक्तृभावात् II1/143
सूत्र संख्या :143
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि यह कहो, शरीरादिक ही भोक्ता है, तो कर्ता और कर्म का विरोध होता है, क्योंकि आप ही अपने को भोग नहीं सकता, अर्थात् शरीरादिक प्रकृति के कार्य हैं, और स्त्रक्चन्दनादिक भी प्रकृति के कार्य हैं। इस कारण आप अपना भोग नहीं कर सकता।