सूत्र :प्रीत्यप्रीतिविषादाद्यैर्गुणानामन्योन्यं वैधर्म्यम् II1/127
सूत्र संख्या :127
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जब कार्य कारण का परस्पर (आपस में) वैधम्र्य कहते हैं। सत्य, रज, तम, इन गुणों का सुख-दुःख मोह इनमें अन्योऽन्य वैधम्र्य (एक ही कारण से अनेक-अनेक प्रकार के कार्यकी उत्पत्ति होना) दिखाई पड़ता है। इस सूत्र में आदि शब्द से जितना ग्रहण होता है, उनका वर्णन पंचाशिखाचार्य ने इस प्रकार किया है कि सत्वगुण से प्रोति, तितिक्षा, सन्तोष आदि सुखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। इस रीति से रजोगुण से अप्रीत शोक आदि दुःखात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं, एवं तम से विषाद, निद्रा (नींद) आदि मोहात्मक अनन्त अनेक धर्म वाले कार्य पैदा होते हैं। घटरूप कार्य में केवल मिट्टी से रूपमात्र का ही वैधम्र्य हैं।