सूत्र :पारम्पर्यतोऽन्वेषणाद्बीजान्नरवत् II1/122
सूत्र संख्या :122
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : बीज और अंकुर के समान अर्थात जब विचार किया जाता है कि पहिले बीज था या वृक्ष, इस विषय में परम्परा मानी गई है। इसी तरह अभिव्यक्ति मानी गई है सिर्फ भेद इतना ही है, कि उसमें त्रमित परम्परा दोष उत्पन्न होता है। अर्थात पहिले कौन था और इसमें एक कालिक एक ही समय में एक का दूसरे से उत्पन्न होना यह दोष होगा लेकिन यह दोष इस कारण माना जाता है कि पतंजलि भाष्य में भी व्यास जी ने कार्यों को स्वरूप में नित्य अवस्थाओं से विनाशी माना है, वहां अनवस्था दोष को प्रामाणिक माना है। यह बीजांकुर का दृष्टान्त केवल लौकिक है, वास्तव में यहां जन्म और कर्म का दृष्टान्त दिया जाता तो श्रेष्ठ था, जैसे-जन्म से कर्म होता है या कर्म से जन्म, क्योंकि बीतांकुर के झगड़े में कोई-कोई आदि सर्ग में वृक्ष के बिना ही बीज की उत्पत्ति मानते हैं, वास्तव में अवस्था कोई वस्तु नहीं है, इसको कहते हैः-