सूत्र :अवि-वेकाद्वा तत्सिद्धेः कर्तुः फलावगमः II1/106
सूत्र संख्या :106
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : कर्ता को फल अविवेक से होता है, क्योंकि जीबात्मा अल्पज्ञ है। वस्तु का यथार्थ ज्ञान बिना नैमित्तिक ज्ञान के नहीं रहता, इसलिए वह अविवेक में शरीरादि के विकारों को अपने में मानता है, जिससे उसे दुःख सुख प्रतीत होते हैं और संसार में लोग प्राकृत धन को अपना मान कर उसके नाश से दुःख मानते हैं, ऐसे ही अविवेक के शरीरनिष्ठ विकारों से जीव अपने को दुःखी-सुखी अनुभव करता है।