सूत्र :चिदवसानो भोगः II1/104
सूत्र संख्या :104
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : चैतन्यता का जो अवसान अर्थात् अभाव है, उसे भोग कहते हैं। यहाँ पर महर्षि भोक्ता और भोग को पृथक्-पृथक् करते हैं, क्योंकि जड़ पदार्थ भोग होते और चैतन्य भोक्त होता है, तथा भोग सदा परिणामी होता है, और भोक्ता है, और भोक्ता एक-रस और चैतन्य होता है।
प्रश्न- क्या जड़ मन और इन्द्रियां नही।
उत्तर- नहीं, यह तो भोग के माधन हैं। प्रश्न- कर्मं तो मन और इन्द्रियाँ करते हैं तो अकर्ता जीवत्मा उसका फल क्यों भोक्ता है?