सूत्र :अकर्तुरपि फलोपभोगोऽन्नाद्यवत् II1/105
सूत्र संख्या :105
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस प्रकार किसानों के उत्पन्न किये अन्नादि का भोग राजा करता है। और सेना के हार जाने से राजा का दूःख होता हैं, इसी प्रकार इन्द्रियों के किये कर्मों का फल आत्मा भोगता है।
प्रश्न- पहिले मान चुके हो कि अन्य के कर्म से दूसरे का बन्धन नहीं होता, अब कहते हो दूसरे का किया दूसरा भोगता है?
उत्तर- स्वतन्त्र कर्ता होता है स्वतन्त्र के किये का फल स्वतन्त्र को नहीं मिलता। यह इन्द्रियें और मन स्वतन्त्र नहीं, किन्तु आत्मा के करने के साधन हैं। जैसे खड्ग से काटने का कर्ता मनुष्य कहलाता है।, ऐसे ही इन्द्रियों के कर्मों का फल जीव को होता हैं।
प्रश्न- चैतन्य जीवात्मा को दुःखादि विकार कैसे हो सकता हैं?