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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचा-रच्छलम् II1/2/55
सूत्र संख्या :55

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जहां किसी ने एक ऐसे शब्द को कहा कि जिसके दो अर्थ हों एक वह जो विशेष (प्रधान) अर्थ हों और दूसरे सामान्यार्थ हों । विशेष अर्थ को धर्म कहते हैं , वक्ता ने सामान्य (साधारण) अर्थों के प्रकट करने के लिए एक शब्द का प्रयोग किया। वहां उसकी विशेष धर्म (खास अर्थों को) वर्णन करके उसकी सत्ता का अभाव सिद्ध करना उपचार छल कहलाता है। जैसे एक पुरूष हमारे साथ रेल पर सवार है और वह मेरठ के समीप पहुंच कर यह कहता है कि मेरठ आ गया। अब उसका अभिप्राय मेरठ पहुंच जाने से है। हम उसकी बात को मिथ्या सिद्ध करने के वास्ते यह धोखा देते हैं कि शहर में ‘आना-जाना’ रूप (क्रियारूप) धर्म सम्भव नहीं , क्योंकि वह जड़ है इसलिए तुम्हारा यह कहना कि मेरठ आ गया सर्वथा झूठ है। प्रत्युत रेल में बैठ कर हम आ गये हैं वस्तुतः वक्ता का भी यही तात्पर्य था, क्योंकि संसार में विशेष धर्म को ही माना जाता है। परन्तु सम्बन्ध से भी किसी धर्म को मान लेना उपचार है। अथवा किसी ने कहा मचान पुकारते हैं। उसके उत्तर में कहा गया कि मचान तो जड़ है । उनमें पुकारने की शक्ति नहीं। किन्तु मचान पर बैठे हुए पुरूष पुकार रहे है।इसलिए तुम्हारा कहना ठीक नहीं। वास्तविक प्रयोजन धोखे का यही है कि वक्ता के अभिप्राय के विरूद्ध अर्थ निकाल कर उसके पक्ष का निराश करना। यद्यपि छल करने वाला इस प्रकार के साधनों द्वारा जो ऊपर के तीन सूत्रों में वर्णन किये गए हैं अपने विरोधी के पक्ष का खण्डन करता है, तथापि इस धोखे से पक्ष की सत्ता में कुछ भी अन्तर नहीं होता । यहां पर आक्षेपता आक्षेप करता है।

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