सूत्र :किंचित्सा-धर्म्यादुपसंहारसिद्धेर्वैधर्म्यादप्रतिषेधः II5/1/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जहां कुछ साधर्म्य होता है, वहीं साध्य की सिद्धि होती है, उसमें किसी धर्म के विरुद्ध होने से उसका खण्डन नहीं होता। सम्बन्ध सहित किसी धर्म के मिल जाने से उपमान सिद्ध होता है। जैसे यह दृष्टान्त देना कि गौ के सदृश नील गाय होती है, जिस धर्म में गौ और नील गाय का सादृश्य है, उसी धर्म के मिलने से दृष्टान्त की उपयोगिता सिद्ध होती है। विरुद्ध धर्म के भेद से समान धर्म की एकता का खण्डन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जिन अंशों में गौ और नील गाय में साधर्म्य हैं, वह विरुद्ध अंशों के वैधर्म्य से खण्डित नहीं होता। दृष्टान्त में दाष्र्टान्त का कोई एक धर्म मिलना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि इनके सारे धर्म ही आपस में मिलें। अतएव उत्कर्षसमादि दोषों से वैधर्म्य को लेकर साध्य का खण्डन करना ठीक नहीं। इस पर एक हेतु और देते हैं:-