सूत्र :साधर्म्यवैधर्म्याभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्य-वैधर्म्यसमौ II5/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जब साधर्म्य से साध्य में विपरीत धर्म देखा जावे, तब साधर्म्य से ही साध्य का खण्डन हो जाता हैं, इसको साधर्म्यसम दोष कहते हैं। जैसे किसी ने कहा कि जैसे घटादि उत्पत्तिमान होने से कार्य हैं, ऐसे ही शब्द भी उत्पत्तिधर्मक होने से कार्य है। अतएव अनित्य है। इस पर दूसरा कहता हैं, जैसे आकाश निरवयव होने से नित्य है वैसे ही शब्द भी निरवयव होने से नित्य है। परन्तु ये दोनों दुष्ट हेतु हैं, क्योंकि कार्य के साथ किसी गुण के मिलने से अनित्य होना और कारण के साथ किसी गुण का साधर्म्य होने से नित्य होना साध्य के निर्णय में पर्याप्त नहीं, इसके लिए किसी अन्य हेतु की आवश्यकता हैं। तात्पर्य यह कि दो पदार्थों में किसी एक धर्म के मिलने से जो समता का प्रतिपादन करना हैं, उसको साधर्म्य सम दोष कहते है: ऐसे ही वैधर्म्यसम में दो पदार्थों के विरुद्ध धर्मों को लेकर उनकी विषमता का प्रतिपादन किया जाता है। जैसे कोई कहे कि आकाश के विरुद्ध उत्पत्ति धर्मक होने से शब्द अनित्य है। इस पर दूसरा कहे कि नित्य आकाश के समान सावयव न होने से शब्द नित्य है और घटादि कार्यों से निरवयव होने के कारण शब्द विलक्षण है। यहां भी कोई विशेष हेतु नहीं क्योंकि शब्द में दोनों धर्म हैं, वह अनित्य घटादि के समान उत्पन्न होने वाला भी है और नित्य आकाश के सदृश निरवयव भी है। वाद करने वाले दोनों पक्ष इससे अपना-अपना प्रयोजन निकाल सकते है। इसलिए ये दोनों निर्णय के प्रतियोगी साधर्म्यसम और वैधर्म्यसम दोष कहलाते हैं, सारांश यह कि दो पदार्थ परस्पर किसी एक धर्म के मिलने से एक जैसे नहीं हो जाते और नहीं किसी एक धर्म के न मिलने से वे आपस में एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो जाते है। इसको पुष्टि करते हैं:-