DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :साध्यदृष्टान्तयोर्धर्मविकल्पा-दुभयसाध्यत्वाच्चोत्कर्षापकर्षवर्ण्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमाः II5/1/4
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : साध्य और दृष्टान्त के धर्म भेद से दोनों तरह सिद्ध होने वाले उत्कर्षसमादि 6 दोष होते हैं। जहां अविद्यमान धर्म के साथ तुलना करके साध्य को वर्णन किया जावे, उसे उत्कर्षसम कहते है। जैसे किसी ने कहा कि घट के सदृश उत्पन्न होने से शब्द भी अनित्य हैं, इसके उत्तर में दूसरा कहता है कि अनित्य होना और उत्पत्ति धर्मक होना ये दोनों धर्म रूपवान् पदार्थ में होते हैं, जब शब्द उत्पत्तिधर्मक और अनित्य वादी को परास्त करने के लिए उसकी अधिक कल्पना कर ली गई, इसी को उत्कर्षसम कहते है।

व्याख्या :
जहां विद्यमान धर्म को साध्य से पृथक करके वर्णन किया जावे उसे अपकर्षसम कहते है। जैसे किसी ने कहा कि रूपरहित आकाश कार्य और अनित्य नहीं, इसलिए शब्द भी रूपरहित होने से कार्य और अनित्य नहीं। यहां शब्द में उत्पत्ति का धर्म था, उसको रूपरहित होने से पृथक किया गया। जो साध्य और उसका हेतु वर्णन करने योग्य है, वह वएर्यसम और जो वर्णन करने योग्य नहीं, वह अवएर्यसम कहलाते हैं, वस्तु में कौन सा धर्म वर्णनीय है और कौन सा अवर्णनीय,यह बुद्धि से जाना जाता है, इसलिए इनके दृष्टान्त नहीं दिये। जो धर्म वस्तु को सिद्ध करने वाला है, दृष्टान्त में उनके विकल्प से साध्य को सन्दिग्ध बनाना विकल्पसम दोष कहलाता है। जैसे कहा जावे कि कियावान् वस्तु कोई भारी होता है जैसे लोहा कोई हलका होता हैं, जैसे वायु। ऐसे ही कियावान् कोई परिच्छिन्न हो सकता हैं, जैसे ढेला और कोई विभु हो सकता हैं, जैसे आत्मा। इसको विकल्पसम कहते हैं। साध्य में दृष्टान्त के एक धर्म मिलने पर सब धर्मों का साम्य मान लेना साध्यसम दोष कहलाता हैं। जैसे कोई कहे कि यदि ढेला कियावान् हैं तो आत्मा भी कियावान् है। यदि आत्मा साध्य है तो ढेला भी साध्य हैं, इत्यादि दोनो एक से है। अब उक्त आक्षेपों का समाधान करते हैं:-

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