DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :नोत्प-त्तितत्कारणोपलब्धेः II4/1/32
सूत्र संख्या :32

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उत्पत्ति और विनाश के जो कारण देखे जाते हैं, वे औपाधिक हैं न कि वास्तविक। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ नित्य होने से उत्पत्ति के पूर्व भी विद्यमान होता है और विनाश के उपरांत भी वर्तमान रहता है और यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि घड़ा बनने से पूर्व कुम्हार के ज्ञान में था और नाश के पश्चात् भी उसके ज्ञान में रहेगा।

व्याख्या :
प्रश्न-किसी वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती, केवल आविर्भाव और तिरोभाव होता है, घड़ा पहले मिट्टी में छिपा हुआ था, वह प्रकट हो गया। इसी का नाम अविर्भाव या उत्पत्ति है। घड़ा टूट करअपने कारण में लीन हो गया। इसी का नाम तिराभाव या नाश है,दोनों अवस्थाओं में वस्तु की शत्ता विद्यमान रहती है। उत्तर-आविर्भाव या तिरोभाव नित्य है वा अनित्य? यदि कहो नित्य है तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि ये दोनों सदा नहीं होते रहते, किन्तु किसी समय विशेष में होतु हैं। यदि कहो अनित्य हैं तो फिर इनके द्वारा जो पदार्थ उत्पन्न या नष्ट होते रहते हैं वे नित्य कि प्रकार हो सकते हैं? उत्तर-हमने तो प्रत्येक पदार्थ में पंचभूतों के लक्षण होने से उनको नित्य माना है। प्रश्न- यह भी ठीक नहीं क्योंकि प्रत्येक कार्य अपने कारण रूप परमाणुओं के संयोग से बना है और संयोग किसी समय विशेष में हुआ है। जो किसी समयविशेष में हुआ हो और समय विशेष तक रहे, सदा न रहे नित्य नहीं हो सकता। प्रश्न-उत्पत्ति का कोई कारण नहीं, केवल स्वप्नदृष्ट वस्तुओं की तरह उसका अभिमान होता है, वास्तव में वह कल्पित है। उत्तर- यदि कार्य वस्तु स्वप्न के समान कल्पित है, तो कारण पंचभूतों को भी कल्पित-मानना पड़ेगा, जिससे सबको नित्य सिद्ध करते-करते पंचभूत भी नित्य न रहेंगे। सूत्रकार स्वयं इसका उत्तर देते हैं।

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