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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :नाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् II3/2/78
सूत्र संख्या :78

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अकृताभ्यागम दोष के होने से उक्त कथन ठीक नहीं। किसी प्रमाण से परमाणुओं की श्यामता का नित्य होना सिद्ध नहीं होता, अतः इस दृष्टान्त से कर्मफल का नाश मानना ठीक नहीं। यदि ऐसा माना जाए तो बिना किए ही संसार में सुख-दुःख आदि फल मानने पड़ेगे। जिससे अकृताभ्यागम दोष होगा क्योंकि बिना शुभ या अशुभ कर्म के किसी को सुख या किसी को दुःख होना अन्धेरे नगरी है। इसलिए बिना कर्मफल के सुख-दुःख के भोग का मानना प्रत्यक्ष, अनुमान और शास्त्र इन तीनों के विरुद्ध है। पहले प्रत्यक्ष का विरोध यह है कि प्रत्येक प्राणी के लिए सुख-दुःख की अवस्था एक जैसी नहीं है, जब अदृष्ट कर्म इसका कारण नहीं है, तो क्या कारण हैं, क्यों एक प्राणी दुःखी है और एक सुखी ? दूसरे अनुमान का विरोध यह है कि जीवों को इस संसार में जो बिना यत्न के सुख-दुःख होते हैं, उनका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। जब दृष्ट कारण कोई देखने में नहीं आता, तब सिवाय पूर्वजन्म के अदृष्ट कर्मों के और क्या कारण हो सकता है। अब रहा शास्त्र का विरोध, वह यह है कि वेद तथा सम्पूर्ण आप्त पुरुषों ने शुभ कर्म को सुख का हेतु और अशुभ कर्म को दुःख का हेतु माना है। यदि शरीरत्पत्ति में कर्म को निमित्त न माना जावे तो कदापि यह बात नहीं हो सकती। इसलिए शरीरों की उत्पत्ति में कर्म फल ही मुख्य कारण है। शरीर की परीक्षा समाप्त हुई। न्यायदर्शन के तीसरे अध्याय का दूसरा आह्निक समाप्त हुआ ।

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