सूत्र :युगपज्ज्ञेयानुपलब्धेश्च न मनसः II3/2/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते, इससे सिद्ध है कि ज्ञान मन का भी गुण नहीं हैं, क्योंकि यदि मन का गुण होता तो एक साथ अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति होने में कोई कारण वाधक नहीं हो सकता था।
व्याख्या :
प्रश्न - जबकि मन के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने से उसके विषय का ज्ञान होता है और न होने से नहीं होता इससे सिद्ध है कि ज्ञान मन ही का गुण है।
उत्तर -इन्द्रिय और मन के सम्बन्ध से जो ज्ञान होता है, वह दोनों में से एक के भी न होने पर नहीं हो सकता। इसलिए मन और इन्द्रिय दोनों ज्ञान के कारण हैं न कि कर्ता या ज्ञाता। जैसे हाथ और कुल्हाड़ी से लकड़ी कटती हैं, परन्तु हाथ और कुल्हाड़ी दोनों काटने के साधन हैं, अतएव ज्ञान (बुद्धि)मन का गुण नहीं, किन्तु मन के अधिष्ठाता आत्मा का गुण है:-
प्रश्न -यदि हम ज्ञान को मन का गुण माने तो क्या दोष होगा ?
उत्तर -यदि ज्ञान मन का गुण माना जावे तो मन फिर अन्तःकरण न रहेगा, किन्तु ज्ञाता हो जायगा: यदि अन्तःकरण को ज्ञाता माना जावे तो फिर वहिष्करण इन्द्रियों को भी ज्ञाता मानना पड़ेगा। अनेक ज्ञाताओं के होने से फिर ज्ञान का प्रतिसन्धान या प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। अतएव ज्ञान मन का गुण नहीं।
प्रश्न -यदि हमम न को अणु न मानें, किन्तु विभु मानें तो क्या दोष हैं ?
जब मन विभु अर्थात् सारेद देह में व्यापक हैं, तो मन का सब इन्द्रियों के साथ एक काल में सम्बन्ध होने से सब विषयों का एक साथ ज्ञान होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता, इससे मन का शरीर में अणु होना सिद्ध है। इस पर वादी आक्षेप करता हैं:-