DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :नियमहेत्वभावाद्यथादर्शनमभ्यनुज्ञा II3/2/12
सूत्र संख्या :12

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यद्यपि ज्ञान में भेद होना वृत्ति और वृत्तिमान का एक न होना ठीक हैं, तथापि स्फटिक को क्षणिक मानकर जो भेद का खण्डन किया गया हैं, वह ठीक नहीं, क्योंकि सब वस्तुओं में वृद्धि और ह्यासका नियम एक सा नहीं हैं।

व्याख्या :
प्रश्न - एक सा नियम न होने में क्या प्रमाण हैं ? उत्तर -नियम होने में किसी प्रमाण का न होना ही न होने का प्रमाण हैं। यदि नियम होता तो उसकी सिद्धि में कोई प्रमाण अवश्य होता। जब कोई नियामक हेतु नहीं हैं तो जैसा देखा जावे, वैसा ही मानना चाहिए। जिसमें वृद्धिऔर ह्यासके चिन्ह देखे जावें जैसे देहादि उनमें वृद्धि और ह्यास मानना चाहिए और जिन पदार्थों में ये चिन्ह अवगत न हों, जैसे सोना, लोहा, पत्थर आदि उसमें भी क्षणिक वृद्धि और ह्यासका मानना ठीक नहीं। स्फटिक में भी क्षणिक वृद्धि और ह्यास नहीं देखें जाते, इसलिए देहवत् उसको भी क्षणिक मानना ठीक नहीं। इस पर एक हेतु और देते हैं:-

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