सूत्र :स्फटिकेऽप्यपरापरो-त्पत्तेः क्षणिकत्वाद्व्यक्तीनामहेतुः II3/2/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यह जो कहा था कि स्फटिक एक ही होता है, परन्तु भिन्न-भिन्न रंग के फूलों का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसमें अनेकत्व की भ्रान्ति होती है, वास्तव में वह अपने स्वरूप से अवस्थित हैं, क्षणिकवादी इसका खण्डन करता है और कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति के क्षणिक होने से उत्पत्ति और विनाश होता रहता है। स्फटिक भी क्षणिक हैं, इसलिए उसमें नई व्यक्ति उत्पन्न होती रहती है और पुरानी नष्ट।
व्याख्या :
प्रश्न - तुम्हारे इस क्षणिकवाद में क्या प्रमाण है ?
उत्तर - शरीर के अवयव सदा बदलते रहते हैं, कभी दुबले होते हैं, कभी मोटे, जिससे प्रतिक्षण शरीर में वृद्धि और ह्यास होता रहता हैं, जहां वृद्धि हो रहीहैं, वहीं उत्पत्ति हैं और जहां ह्यास है, वहीं विनाश हैं, भोजन का परिपाक होकर रस रक्त में परिणत होना कहीं शरीर की उन्नति और कहीं अवनति का कारण होता हैं, तौल में अन्तर होने के कारण भी वृद्धि और ह्यसका पता लगता हैं, सूक्ष्म और क्रमशः होने के कारण हम इस परिवर्तन को मालूम नहीं कर सकते, परन्तु प्रतिक्षण यह परिवर्तन न हो रहा है, देह के ही समान प्रत्येक वस्तु क्षणिक हैं। अब इसका उत्तर देते हैं:-