DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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Darshan

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सूत्र :समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनु-पलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः II1/1/23
सूत्र संख्या :23

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जहां सामान्य गुण तो मिल जाएं और विशेष धर्मों (गुणों) को जानने के लिए जो विचार उत्पन्न होता है वह संशय कहलाता है जैसे किसी पुरूष ने दूर से स्थाणु (सूखे वृक्ष का ठूँठ) को देखा और पुरूष के समान स्थूल और ऊँचा देखकर यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि यह पुरूष है या ठूँठ है इस पर समीक्षा आरम्भ की कि यदि मनुष्य होता तो उसके हाथ-पांव अवश्य हिलते, अतः जानना चाहिए ।

व्याख्या :
प्रश्न-इस दृष्टान्त के समान धर्म कौन से हैं ? उत्तर-स्थूलता और ऊंचाई साधारण धर्म हैं और कर चरणादि के चालनादि विशेष धर्म हैं जो मनुष्य में है और स्थाणु में नहीं। प्रश्न-संशय किस दशा में होता है ? उत्तर-जब तक पदार्थ का तात्विक ज्ञान नहीं होता तथा जो नर आत्मा के गुणों से अनभिज्ञ है , उसको इस बात का संदेह है या नहीं परन्तु जब उसको आत्मा के गुणों का ज्ञान होता है तब उसको सन्देह नहीं होता । प्रश्न-जबकि मनुष्य को मुक्ति के लिए ही परिश्रम करना चाहिए और कामों में आयु व्यतीत करना व्यर्थ है तो क्यों इतने व्यर्थ के झगड़े करे । उत्तर-आत्मा का प्राकृतिक पदार्थों से किसी न किसी समय सम्बन्ध अवश्य पड़ता है जिससे आत्मा को संशय उत्पन्न होता है कि क्या यह वस्तु मेरे लिए लाभकारक है या हानिकारक । यदि लाभदायक प्रतीत होगी तो उसकी प्राप्ति की अवश्य इच्छा होगी। और यदि अनिप्टोत्पादक होगी तो उसके त्याग का यत्न होगा अतः मानुष को सन्दिग्ध विचार से सर्वथा दूर कर देना चाहिए जिसका उपाय तत्वज्ञान बिना नहीं हो सकता । प्रश्न-प्रयोजन किसे कहते हैं ?

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