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दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः II1/1/22
सूत्र संख्या :22

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उस (दुःख) के पंजा (चंगुल) से सर्वथा छूट जाने का नाम अपवर्ग अर्थात् मुक्ति है।

व्याख्या :
प्रश्न-क्या दुःख के अत्यन्ता भाव का नाम मुक्ति है ? उत्तर-यदि दुःख के अत्यन्ता भाव को मुक्ति माना जाये तो वह मुक्ति चैतन्य जीवात्मा की नहीं हो सकती परन्तु जड़ वस्तुओं का धर्म है क्योंकि जड़ वस्तुओं में मन के न होने से कभी दुःख का नाममात्र भी नहीं होता । अतः दुःख होकर सर्वथा दूर हो जाना मुक्ति कहलाती है। प्रश्न-यदि दुःख का होकर छूट जाना मुक्ति है ऐसा माना जाय तो सुषुप्ति काल में जाग्रतावस्था के दुःख छूट जाते हैं अतः मुक्ति कहलायेगी । उत्तर-सुषुप्तावस्था का नाम मुक्ति नहीं हो सकता किन्तु मुक्ति के लिए एक दृष्टान्त हो सकता है क्योंकि सुषुप्तावस्था में दुःखों का बीज सूक्ष्म शरीर विद्यमान है और मुक्ति की दशा में सूक्ष्म शरीर नहीं रहता है। प्रश्न-मुक्ति में दःख का नाश हो जाता है तो संसार में सब लोग मुक्त हो जाने चाहिएं । उत्तर-अतएव तो ऋषि ने सर्वथा दुःख से पृथक होना मुक्त कहा अन्यथा दुःख के नाश को मुक्ति बतलाते । प्रश्न-क्या एक बार दुःख से छूटकर फिर बन्धन में तो जीव नहीं आता । उत्तर-आता है क्योंकि साधनों से निष्पन्न मुक्ति नित्य नहीं हो सकती । प्रश्न-जब दुःख का लेशमात्र भी सम्बन्ध न रहा और मिथ्या ज्ञान जो दुःखोत्पत्ति का कारण था नष्ट हो गया तो फिर दुःख क्योंकर उत्पन्न हो सकता है। उत्तर-मिथ्या ज्ञान को नष्ट करने वाला जो वेद द्वारा ज्ञात तत्वज्ञान है जब मुक्ति में वेदों की शिक्षा का अभ्यास बन्द हो गया तो जीव का ज्ञान हृासभाव को प्राप्त होता गया और अन्ततः अपने स्वाभाविक ज्ञान की सीमा तक पहुंच गया जिससे फिर बन्धन में आना सम्भव हो गया। अधिक विवाद आगे आयेगा। प्रश्न-संशय अर्थात् सन्देह किसे कहते हैं ?

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