सूत्र :पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः II1/1/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इन्द्रिय और मन का शरीर के साथ जो सम्बन्ध है उसके टूट जाने का नाम ‘प्रेत’ है और प्रेत के दोबारा जन्म लेने को ‘प्रेत्य भाव’ (मरकर जन्मना) कहते हैं। अर्थात् सूक्ष्म शरीर के साथ जीव का एक शरीर से निकलना ‘प्रयाण’ कहलाता है। प्रयाण जो करता है उसे ‘प्रेत’ कहते हैं और उस प्रेत का अन्य शरीर के साथ जो सम्बन्ध का पैदा करना है वह ‘प्रेत्यभाव’ (आवागमन) कहलाता है। सो यह अनादि जन्म से लेकर मुक्ति की अवस्था तक बराबर लगा रहता है।
व्याख्या :
प्रश्न-प्रत्यभाव के होने में क्या प्रमाण है ?
उत्तर-बुद्धि के संस्कार और कर्मों का भिन्न-भिन्न प्रकार का भोग । क्योंकि जीव का स्वभाव इस प्रकार का है कि यह संग (संसर्ग) से संस्कृत होता है अतः जैसे जन्म में जीव रहता है उसी प्रकार के स्वभावों के संस्कार मन पर अंकित हो जाते हैं जो कि बालकों की स्मरण शक्ति और आकृतिक (स्वाभाविक) वैचिच्य पर विचार करने से स्पष्ट अनुभूत हो सकते हैं। अधिक विवाद परीक्षा प्रकरण में आयेगा।
प्रश्न- फल किसे कहते हैं ?