DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :बाधनालक्षणं दुःखम् II1/1/21
सूत्र संख्या :21

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : स्वतन्त्रता का न होना और विकल्प का होना दुःख कहलाता है अर्थात् मन को जिस वस्तु की इच्छा हो उसके न मिलने का नाम दुःख है।

व्याख्या :
प्रश्न-स्वतन्त्रता से और दुःख से क्या सम्बन्ध है ? उत्तर-जब मनुष्य को भूख लगे और खाना उपस्थित हो तो वह क्षधा दुःख नहीं कहलाती {प्रत्युत खाने (भोजन) की सत्ता में क्षुधा का न्यून होना दुःख का कारण होता है ।} परन्तु जब वह भोजन विद्यमान न हो तब भूख अत्यन्त दुःखदायिका प्रतीत होती है। द्वितीय जैसे मजदूर (कर्मकार) लोग अपने घर में रहते हैं, उन्हें कुछ कष्ट प्रतीत नहीं होता परन्तु यदि उनको उस घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया जाये तो वह घर उनको कष्ट का घर हो जायेगा। प्रश्न-यदि स्वतन्त्रता का न होना ही दुःख है तो जीव कदापि मुक्त नहीं हो सकता क्योंकि परमात्मा के नियमों में बंधा हुआ है। उत्तर-परमात्मा जीव के भीतर बाहर विद्यमान है अतः उससे सुख प्राप्ति के लिए जीव को किसी साधन (सामग्री) की आवश्यकता नहीं अतः वह नियमित नहीं, परन्तु प्राकृतिक सुख की प्राप्ति के लिए मन इन्द्रिय और भोग्य सामग्री की आवश्यकता है । उनमें से एक की भी न्यूनता से अत्यन्त दुःख प्रतीत होता है। प्रश्न-मुक्ति क्या वस्तु है ?