सूत्र :ज्ञातुर्ज्ञानसाधनोपपत्तेः संज्ञाभेदमात्रम् II3/1/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि प्रत्येक करण कर्ता की सहायता के लिए होता है, यदि कर्ता न हो तो सब करण मिलकर भी कोई काम नहीं कर सकते, इसी प्रकार ज्ञान प्राप्ति के जितने साधन हैं, वे सब ज्ञाता की सहायता के लिए हैं, जैसे आंख से देखता हैं, नाक से सूंघता हैं, त्वचा से स्पर्श करता हैं, मन से सोचता है, इत्यादि, आंख आदि के समान मन भी एक ज्ञान साधन हैं, जिसको अन्तःकरण भी कहते हैं वह ज्ञान की उपलब्धि में मन का साधक है न कि बाधक। यदि मन को ही चेतन माना जावे, करण न माना जावे, तब भी केवल सज्ञा भेद मात्र होगा, अर्थ भेद नहीं, अर्थात् जिसको हम आत्मा कहते हैं, उसको तुम मन कहते हो, मन के स्थान में कोई और नाम कल्पित करना पड़ेगा। परन्तु इससे उस सिद्धान्त में कि ‘देहादिसंघात से आत्मा पृथक है‘ कोई हानि नहीं होती। इस पर एक हेतु और भी देते हैं:-