सूत्र :नियमश्च निरनुमानः II3/1/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि कोई कहे कि रूपादि के ग्रहण करने वाले चक्षुरादि इन्द्रिय तो अवश्य हैं, परन्तु सुखादि के अनुभव करने वाले मन या अन्तःकरण की कोई आवश्यकता नहीं, वह बिना किसी कारण के ही उपलब्ध होते हैं, ऐसा नियम बांधना अनुमान के विरुद्ध है। क्योंकि इसमें तो किसी को सन्देह नहीं कि रूपादि से पृथक सुखादि विषय हैं उनके जानने के लिए भी कारण का होना आवश्यक है। जैसे आंख से गन्ध का ज्ञान नहीं होता, उसके लिए दूसरा इन्द्रिय घ्राण मानना पड़ता हैं, और आंख और नाक दोनों से रस का ज्ञान नहीं होता, इसलिए उसके लिए तीसरा इन्द्रिय रसना को मानना पड़ता है। ऐसे ही आंख आदि पांचों इन्द्रियों से सुखादि का ज्ञान नहीं होता, तब उसके लिए मन अन्तःकरण की आवश्यकता क्यों नहीं ? सारे इन्द्रिय मन से सम्बन्ध रखते हैं यही कारण है कि एक साथ अनेक विषयों का ज्ञान नहीं होता, क्योकि जब जिस इन्द्रिय के साथ उसका संयोग होता हैं, तभी तद्विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए पूर्व आत्म सिद्धि के लिए जो हेतु दिए गये हैं, वे मन में कदापि नहीं घट सकते। अब उस आत्मा के विषय में जिसकी देहादि संघात से पृथक सिद्ध किया है, यह सन्देह उत्पन्न होता कि वह नित्य है या अनित्य ? अगले सूत्र में आत्मा की नित्यता सिद्ध करते हैं:-