DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :विकारादेशोपदेशात्संशयः II2/2/41
सूत्र संख्या :41

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : वर्णात्मक शब्द में विकार और आदेश होते हैं, इसलिए संशय उत्पन्न होता है।

व्याख्या :
प्रश्न -विकार किसे कहते हैं ? उत्तर - जैसे व्याकरण में बतलाया गया है कि “इ“ को “य“ हो जावे तो अब यकार इकार का विकार हुआ। विकार का अर्थ बिगड़ कर अन्य रूप को धारण कर लेना हैं, जैसे दूध से दही हो जाता हैं। प्रश्न -आदेश किसे कहते हैं ? उत्तर - आदेश वह है, जो स्थानी के स्थान में होता है, जैसे “इ“ के स्थान में “य“होता है। कोई इसे विकार कहते हैं और कोई आदेश। प्रश्न - यदि यकार को इकार का विकार माना जाए, तो इसमें क्या दोष होगा ? उत्तर - यदि विकार मानोगे तो इकार को यकार का कारण मानना पड़ेगा, परन्तु “इ“ “य“का कारण नहीं है। दूसरे जब “इ“ का “य“बन गया तो फिर “इ“ न रहनी चाहिए, जैसे दूध का जब दही बन जाता है तो दूध का नाश हो जाता है परन्तु ऐसा नहीं होता। प्रश्न -दो कपालों के संयोग से घटरूप कार्य बन जाता है वहां कारणरूप ज्ञान का नाश नहीं होता। इससे विकार मानने में कोई दोष नहीं। उत्तर -कपाल और घट कार्य कारण भाव है, किन्तु इकार और यकार में यह सम्बन्ध नहीं, इसलिए विकार कहना अयुक्त है, उसको आदेश ही कहना चाहिए। प्रश्न -यदि इकार और यकार में कार्य कारण भाव सम्बन्ध माना जावे तो क्या दोष हैं ? उत्तर -जब इकार में कुछ अधिक होकर यकार बन जावे, तब उसका कार्य कारण भाव सम्बन्ध हो सकता है, किन्तु न तो इकार में से कुछ कम होकर यकार बनता है और नहीं कुछ मिलकर बना है। इसलिए कार्य कारण भाव नहीं हो सकता। जिस तरह गाडी में बैल की जगह घोड़ा लगा देने से घोड़ा बैल का स्थानापन्न होता है, इसी तरह इकार की जगह यकार बोलने से उसका आदेश होगा न कि विकार। जोकि अक्षर सब नित्य हैं इसलिए कोई अक्षर किसी अक्षर का विकार नहीं हो सकता। इस पर एक हेतु और देते हैं:-

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