सूत्र :न्यूनसमाधिकोपलब्धेर्विकाराणामहेतुः II2/2/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि प्रकृति के बराबर ही उसके विकार के होने का नियम होता, तब तो कह सकते थे कि वर्णों में विकार नहीं। परन्तु विकार कहीं प्रकृति से कम, कहीं बराबर और कहीं अधिक होता है। जैसे रुई से जो सूत बनना है, वह रुई से कम होता है और सुवर्ण से जो आभूषण बनते हैं से सोने के बराबर होते हैं और बीज से जो वृक्ष बनता है, वह बीज से बहुत घड़ा होता है, इस वास्ते यह हेतु कि प्रकृति के बढ़ने से विकार भी बढ़ता है, ठीक नहीं, इसका उत्तर:-