सूत्र :तत्रात्मा मनश्चाप्रत्यक्षे 8/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अर्थ- बुद्धि तीन प्रकार की है 1. सत्विद्या 2. विद्या 3. अविद्या।
व्याख्या :
प्रश्न- सत् विद्या किसे कहते हैं?
उत्तर- जो ज्ञान तीन काल में एक सा रहने वाला है अथवा तीन काल में रहने वाले पदार्थों का जो ज्ञान है वह सतविद्या है। तात्पर्य यह है, कि परमात्मा, जीवात्मा और परमाणुओं सेसत्ता का ठीक ज्ञान होता है वह ज्ञान बदलने वाला न होने से सत् विद्या कहलाती है।
प्रश्न- विद्या किसे कहते हैं?
उत्तर- जिससे, जैसा पदार्थ हो वैसा ज्ञान हो जावे उसे विद्या कहते हैं विद्या चार प्रकार की हैं। 1. प्रत्यक्ष-अर्थात् इन्द्रियार्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञान उत्पन्न होता हैं दुसरे लिंग ज्ञान जो अनेमान द्वारा होता है। तीसरे स्मृति- जो पहले देखे सुने स्मर्ण होने से ज्ञान उत्पन्न होता है। चौथे आर्ष-जो आपत उपदेश से ज्ञान प्रात होता है।
प्रश्न- अविद्या कि कहते हैं?
उत्तर- जब वस्तु के वस्तुत्व का न समझकर भ्रम से और को और समझता है तब उसे अविद्या कहते हैं। वह भी चार प्रकार की है। 1. संशयज्ञान, 2. विरूद्धज्ञान, 3. स्वप्नज्ञान, 4. जिसका आत्मा में विश्वास ही न हो। उनमें जो पदार्थ इन्द्रियों से अनुभव नहीं होते उनका ज्ञान अनुमान से होता है। इस सूत्र में आत्माशब्द से जीवात्मा और परमात्मा दोनों का तात्पर्य है। ‘‘मन’’ और शब्द ‘‘च’’ से काल दिशा, आकाशादि, उनका ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता, किन्तु अनुमानादि से होता है यह सूत्रकार का तात्पर्य है। और प्रत्यक्ष ज्ञान भी दो प्रकार का है; 1.योगियों का दूसरा अन्यों का। योगियों का ज्ञान पदार्थों की ठीक-ठीक योग्यता का बतलाने वाला होता है और ग्रन्थों के प्रत्यक्ष में भी अशंद्धि होना सम्भव है।
प्रश्न- औरों का प्रत्यक्ष अशुद्ध होना किस प्रकार सम्भव है?
उत्तर- औरों के प्रत्यक्ष के वास्ते इन्द्रियों के अतिरिक्त सहायकों की आवश्यकता हैं यदि सहाकों में कमी है या वह ठीक नहीं तो ज्ञान अशुद्धि हो जाती है। जैसे थोड़ा रोशनी और अंधेरे में रस्सी को सांप जानते हैं। तो आंख से सहायक रोशनी की कमी के कारण से यह भ्रम हुआ है, किन्तु योगियों को सहायक की आवश्यकता नहीं होती। इस वास्ते उनका ज्ञान ठीक पूरा कहाता है।
प्रश्न- पुरूष सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं?
उत्तर- पुरूष तात्पर्या जीवात्मा दोनों हैं। परमात्मा सर्वस् है। जीवात्मा किसी अवस्था में एक देशी होने के कारण सर्वज्ञ नहीं हो सकता। योगी तत्वज्ञ होता है और सांसारिक जनों में विरूद्ध भी हो सकता है और इतरजनों का प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है एक संशय युक्त दूसरा संशय रहित। जो संशय युक्त है वह तो प्रमाण ही नहीं जैसे रस्सी में सर्प आदि।