DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :कर्मभिः कर्माणि 7/2/24
सूत्र संख्या :24

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यहां पर कार्य कारण केवल नमूने के लिए वर्ण किया गया है। अकार्य और कारण में भी समवाय होता है जब दो वस्तु अन्योऽन्याश्रय की रीति पर आधार और आधेय पाये जावे और अनमें से एक बिना दूसरे के न हो सके तो उनका तो उनका जो सम्बन्ध इस स्थान पर है। इस ज्ञान को प्रकाशित करता है, वही समवाय सम्बन्ध है। जो बिना सम्बन्ध दो वस्तुओं में न रहे और सम्बन्ध वालों में वेर आदि हैं, इन तारों में कपड़ा है, ऐसे द्रव्य में द्रव्य औ कर्म जिस प्रकार गौ में गौपन है इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान है कि काकइ सम्बन्ध है यहां संयोग सम्बन्ध तो है नहीं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के कारण कर्मादि का यहां नास्तिकत्व है दूसरे विभाग का भी अवसर नियमित प्रमाण के न होने से अप्रत्यक्ष और नित्य होने से।

व्याख्या :
प्रश्न- यदि समवाय एक ही है तो द्रव्यादि में रहने वाले द्रव्यत्व से गड़बड़ होगा, कर्म में रहने वाले कर्मत्व के समवाय का भी द्रव्य होना सम्भव होने से। उत्तर- ऐसा मत कहों, क्योंकि आधार और आधेय नियम होने से गड़बड़ नहीं। यद्यपि द्रव्यत्व का समवाय है वही गुण और कर्म के गुण और कर्मपने का समवाय है, किन्तु उनका आधार द्रव्य नहीं क्योंकि कर्म और गुण का कर्मत्व गुण्त्व द्रव्य में पाया जाता है। द्रव्य में रहने वाला द्रव्यतत्व द्रव्य में ही होता है और गुण में रहने वाला गुणत्व में प्रतीत होता है। और कर्म में रहने वाला कर्मत्व कर्म में पाया जाता है। उनके अतिरिक्त और कहीं नहीं पाया जाता। इस वास्ते अन्वय और वयतिरेक से यह निय स्पष्ट है। जैसे दही और कुंडी के विशेष सेयों होने पर भी कूंडी ही आधार है, दही नहीं। यह आधार आधेय का नियम है। ऐसे ही वर्णन किया हुआ और वर्णन करने वाली शक्ति के भेद से यहां भी स्थायी नियम है। जिस प्रकार द्रव्य का द्रव्य को प्रकाशित करता है उस प्रकार कर्मत्व द्रव्य का प्रकाशित करता। आधार के आधारत्व के विरूद्ध सही ज्ञान नहीं हो सकता और द्रव्य कर्म नहीं होता और कपड़े में तारे नहीं होती। इससे वायु के रूप का आधार होने पर भी हवा का रूप नहीं दिखाई देता, क्योंकि रूप वायु का स्वभाव नहीं है। इसलिये स्वभ्ससव शक्ति ही प्रत्येक स्थान पर नियम स्थायी करने वाली है और नित्य है, क्योंकि उसका काई कारण नहीं और उत्पन्न हुई वस्तु बिना समवाय कारण के उत्पन्न होने का नियम है अर्थात् और उसके कर्म से निमित्त और असमवाय कारण भी होते हैं। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है, कि यदि समवाय को नित्य माना जावे तो उसका समवाय कारण कोई अन्य समवय होना अथवा यही समवाय ही अपना समवाय कारण होगा यदि दूसरा समवाय स्वीकार करें तो अनुस्मिता दोष होगा। यदि समवाय कासमवाय कारण कहें तो आत्माश्रय (अर्थात् अपनी पीठ पर आप चढ़ना) दोष होगा जो कि सम्भव नहीं। प्रश्न- तारों में कपड़ा समवाय है और कपड़े में रूप समवाय है यह वर्णन बिना एक से ज्यादा माने कैसे होगा? उत्तर- यह स्वरूप समबन्ध से होता है दूसरा समवाय मानने से अनवस्था दोष होता है। प्रश्न- तो यह कपड़े का रूप है यह भी स्वरूप सम्बन्ध से होगा या समवाय सबन्ध से? उत्तर- समवाय सम्बन्ध से। क्योंकि यहां कोई रूकावट नहीं है। प्रश्न- भूतल पर घड़ा नहीं है। इस स्थान पर समवाय संबंध होगा या स्वरूप संबंध? उत्तर- यहां समवाय सम्बन्ध नहीं किन्तु स्वरूप सम्बन्ध से ही सम्भव है। वरन् घड़े का अभाव और घड़े को कपड़े में अभाव और कपड़े का घड़े में, जो अनेक रहने वाला नित्य है बराबर हो जाएगा, और कुछ भेद ही न रहेगा। और प्राक्भाव के समवाय से पैदा न होने से उसका नाश न हो सकेगा। ऐसे ही अवसर पर सत्ता के विवादास्पद न होने से प्रमाणित न हो सकेगा। भाटाचार्च वशिष्ट नामी, एक पृथक् सम्बन्ध ही सम्बन्ध है तो घड़े की उपस्थिति से घड़े का अस्तित्व ज्ञान सम्भव हो जायेगा क्योंकि घड़े के अभाव के विशिष्ट न होने से वहां घड़ा के अभाव को रोकने वाला है। यदि ऐसा हो तो विशिष्ट के सम्बन्ध से ही रोकने वाले के अभाव का भी न होना मानते। न तो आश्रय और और आश्रित वस्तु ही इस प्रकार की है और नहीं घड़े के अभाव का वर्णन हो सकता है। घड़े के उठा ले जाने के पश्चात् उसी स्थान पर झाड़े का अभाव मालूम होने से वहां भी रूप के नाश के पश्चात् क्यों न रूप्वान् का ज्ञान समवाय के नित्य और एक होने से होता यदि ऐसा कहो तो रूप पांच पदार्थों से पृथक् समवाय को प्रमाणित करते हैं।

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