सूत्र :तत्त्वं भावेन 7/2/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस प्रकार सत्ता संसार के सम्पूर्ण पदार्थों में रहने पर भी एक है। इसी प्रकार समवाय भी एक है। जिस प्रकार सत्ता से इस तरह का ज्ञान होता है इसी प्रकार ही समवाय प्रत्येक स्थान पर एक सम रह कर बहुत है। इस प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति का कारण ही निशान में विशेषता होने से द्रव्यादि से पृथक् है। और किसी प्रकार के भेद ज्ञान करने वाली विशेषता के न होने से व एक ही है तात्पर्य यह है कि समवाय का कोई ऐसा निशान नहीं है। जिससे समवाय का एक से ज्यादा होना प्रमाणित हो सके स वास्ते देशऔर काल के भेद से मिलने के कारण वह अतीत्य है अनित्य होने के योग्य न होने से।
व्याख्या :
प्रश्न- यदि समवाय सम्बन्ध ही है तो तार और कपड़े और रूप से पृथक् हो सकता है?
उत्तर-आधार आधेय होने में उसका पृथक्त्व नहीं हो सकता है क्योंकि रूप गुण, और रूप वाले द्रव्य अथवा सम्पूर्ण और विभाग में जहां सम्बन्ध नहीं, समवाय उपस्थित नहीं जिसके पृथक्त्व हो।
प्रश्न- आधार व आधेय ही भिन्न हो?
उत्तर- ऐसा होना असम्भव है, क्योंकि यह अनभव के बिलकुल विरूद्ध होने से।
प्रश्न- प्रभाकर आचार्य समवार्य को एक ज्यादा और अनित्य मानते हैं?
उत्तर- यह ठीक नहीं, क्योंकि रूपनाश हुआ, यह ज्ञान होता हैं। किन्तु रूप का समवाय नाश हुआ है यह ज्ञान नहीं होता।
प्रश्न- बहुत से मनुष्य समवाय को प्रत्यक्ष मानते हैं?
उत्तर- यह भी ठीक नहीं क्योंकि समवाय इन्द्रियों से अनुभव नहीं होता, किन्तु इन्द्रियों की शक्ति से कालादि की तरह बाहर है।
सातवां अध्याय समाप्त हुआ।