सूत्र :भोक्तुरधिष्ठानाद्भोगायतननिर्माणम-न्यथा पूतिभावप्रसङ्गात् II5/114
सूत्र संख्या :114
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : भोक्ता (पुरूष) के व्यापार से श्रीर का बनना हो सकता है। यदि वह प्राणों को अपने-अपने स्थान न लगावे तो प्राण-वायु कभी भी ठीक-ठीक रसों को नहीं पका सकता। जब रस ठीक तरह से न पकेंगे तो शरीर में सैकड़ों तरहके रोग पैदा हो जायेंगे और दुर्गन्ध आने लगेंगी। अतएव यद्यपि प्राण कारण है लेकिन मुख्य कारण पुरूष को ही मानना चाहिये।
प्रश्न- जो अधिष्ठानतृत्व (बनानेवालापन) पुरूष में माना जाता हैं वह अधिष्ठातृत्व यदि प्राण में ही माना जावे तो क्या हानि है?