सूत्र :नाप्राप्तप्रकाशकत्वमिन्द्रियाणा-मप्राप्तेः सर्वप्राप्तेर्वा II5/104
सूत्र संख्या :104
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस पदार्थ का इन्द्रियों से कोई भी सम्बन्ध नही है उसका इन्द्रिया प्रकाश नहीं कर सकतीं। यदि कर्म करती हैं तो देशान्तर में रक्खी कोई वस्तु का भी प्रकाश करना सिद्ध हो जायेगा परन्तु ऐसी बात न तो नेत्रों से देखी और न कानों से सुनी। इस सूत्र का स्पष्ट भाव यह है कि इन्द्रियां उसी पदार्थ को प्रकाश कर सकती है जिसमें उनका सम्बन्ध होता है, सम्बन्ध रहित प्रकाश करने में उनकी शक्ति नहीं हैं। यदि इन्द्रियों में यह शक्ति होती कि बिना सम्बन्ध वाले पदार्थ को भी प्रकाश कर दिया करतीं तो देशान्तर के पदार्थ का भी प्रकाश करना कुछ मुश्किल न होता और दूसरी जगह रक्खे हुए पदार्थां का नत्र आदि इन्द्रियों को ज्ञान हो जाया करता कि वह वस्तु अमुक स्थान में रक्खी है तो उनको सवंज्ञता प्राप्त हो सकती है, इसलिए ईश्वर और इन्द्रियों में कुछ भेद नहीं हो सकता, क्योकि ईश्वर सर्वज्ञ है और इन्द्रियां भी सर्वज्ञ हैं, ऐसा ही कहने में आवेगा। इस कारण यही बात माननी ठीक है कि नेत्र आदि इन्द्रियां उस वस्तु का ही प्रकाश कर सकती हैं जो उनको दीखती है।
प्रश्न- अपसर्पण (फैलाना) तेज का धर्म है और तेज पदार्थ का प्रकाश करता है। इसी तरह नेत्र को भी तेजस्परूप मानना चाहिये, क्योंकि वह नेत्र भी पदार्थ का प्रकाश करता है।