सूत्र :न विज्ञानमात्रं बाह्यप्रतीतेः II1/42
सूत्र संख्या :42
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इस जगत् को केवल मिथ्याज्ञान का विज्ञानमात्र नही कह सकते, क्योकि ज्ञान आन्तरिक अर्थात् भीतर ही होता है और जगत् बाहर और भीतर दोनों दशाओं में प्रकट है।
प्रश्न- जब हम बाहर किसी पदार्थ के भाव को मानते ही नही केवल भीतर के विचार ही मनोराज्य की सृष्टि की भांति मालूम होते है?