सूत्र :नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः II5/29
सूत्र संख्या :29
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिन दो पदार्थों का व्याप्य-व्यापक भाव होता है, उन दोनों पदार्थों में से एक का अथवा दोनों का जो नियत धर्म है उसके साहित्य (साथ रहने के नियम) होने को व्याप्ति कहते हैं विशेष व्याख्या इस तरह है कि जैसे पहाड़ पर आग है क्योंकि धुंआ दीखता है। जहां-जहां धुंआ होता है, वहीं-वहीं आग भी अवश्य होती है। इसका नाम ही व्याप्ति है। इससे यह जानना चाहिए कि धुंआ बिना आग के नही रह सकता, परन्तु आग बिना धुंए के रह सकती है, इससे सिद्ध हुआ कि धुंए का आग के साथ रहना नियत धर्म-साहित्य है, परन्तु एक नियत धर्म साहित्य हुआ। चार्वाक ने जो अग्नि घोड़े का दृष्टांत देकर व्याप्ति का खण्डन किया था, वह भी सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि घोड़ो तो सैकड़ों जगह बिना अग्नि के दीखने में आता है और आग को बिना घोड़े के देखते हैं, इस वास्ते वह साहचर्यं नही रहा अतएव वह सब आयुक्त सिद्ध हो गया। अब रहा दोनों का नियत धर्म साहित्य वह गन्ध और पृथ्वी में मिलता है अर्थात् जहां पृथ्वी भीं अवश्य होगी। इन दोनों में से बिना एक नहीं रह सकता है।