सूत्र :अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् II5/25
सूत्र संख्या :25
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : धर्मादिक अन्तःकरण के धर्म हैं अर्थात् इस धर्मादिकों का सम्बन्ध अन्तःकरण से है, जीव से नहीं है, और इस सूत्र में जो आदि शब्द है, उसके कहने से वैशेषिक शास्त्र के आचार्यों ने जो आत्मा के विशेष गुण माने हैं, उनका ग्रहण माना गया है अर्थात् वही आत्मा के विशेष गुण जाने गए हैं। प्रलयावस्था में तो अन्तःकरण रहता ही नहीं, तब धर्मादिक कहां रहते हैं। ऐसा तर्क नहीं करना चाहिए। कारण यह है कि आकाश के समान अन्तःकरण भी नाश रहित है, अर्थात् अन्त-करण का नाश सिवाय मुक्ति के कदापि नहीं होता और इस बात को पहले कह भी चुके हैं कि अन्तःकरण कार्यंकारणभाव दोनों रूप को धारण करता है। इससे अन्तःकरण रूप जो प्रकृति का विशेष अंश है, उसमें धर्मं अधर्मं दोनों के संस्कार रहते हैं। इस बात को ही किसी कवि ने भी कहा है, कि धर्म नित्य है और सुख दुःखादि सब अनित्य हैं। इस विषय में यह सन्देह भी उत्पन्न होता है कि प्रकृति के कार्यों की विचित्रता से जो धर्मं अधर्मं आदि की सिद्धि की गई है वह सत्य नहीं क्योंकि प्रकृति तो त्रिगुणात्मक अर्थात् रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण, इससे युक्त है, और इसके कार्यों का बोध इन श्रुतियों से प्रत्यक्ष मालूम पड़ता है। ‘‘वाचारम्भण विकासे नामधेयं मृत्तिकेत्वेव सत्यम्’’ घट-पट आदि सब कहने मात्र को ही हैं, केवल मृत्तिका (मिट्टी) हरी सत्य है। इस वास्ते प्रकृति के गुण मानना सत्य नहीं, इस पक्ष के खण्डन में यह सूत्र हैः-