सूत्र :पञ्चावयवयोगात्सुखसंवित्तिः II5/27
सूत्र संख्या :27
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सुखादि पदार्थों की सिद्धि पंचावयव वाक्य से होती है, जिय तरह न्यायशास्त्र में मानी गई है। इस कारण जब सुख आदि की सिद्धि न्यायशास्त्र के अनसार मान ली जाती है, तब उसका स्वरूप से नाश भी नहीं माना जा सकता। क्योंकि तो पदार्थ सत् है, उसका नाश नहीं हो सकता और उस पंचावयव वाक्य से सुखादि की संवित्ति इस तरह होती है कि इस तरह कि प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन पांचों को सुख में इस तरह लगाना चाहिए कि सुख सत् है, इसका नाम प्रतिज्ञा की त्रियाओं का कत्र्ता है, उसी तरह इसका नाम भी दृष्टांत हैं। पुलकन (रूंओं का खड़ा होना) आदि प्रयोजन की त्रिया सुख में है। इसका नाम उपनयन है, इस वास्ते वहसच्चा है, यह निगमन है। यहां केवल सुख का ग्रहण करना नाम मात्र ही है इसी तरह और गुणों का स्वरूप से नाश नही होता। इस जगह आचार्य ने न्याय का विषय इस वास्ते वर्णन किया है कि इन पाँच बातों के बिना किसी झूठे-सच्चे पदार्थ का निश्चय नहीं सकता और जो इस पंचावयव से सिद्ध नहीं हो सकता उसमें अनमान करना भी सत्य नहीं और नास्तिक जो कि प्रत्यक्ष के सिवाय और प्रमाणें को नहीं मानना और आशय से अट्ठाईसवे सूत्र से दोष और अनुमान को असंगत बतलाता है।