सूत्र :अर्थात्सिद्धिश्चेत्समानमुभयोः II5/24
सूत्र संख्या :24
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वेदानि सत् शास्त्रों में जिस बात की विधि पाई जाती है वही धर्म है, और इसके सिवाय अधर्म है। यदि इस प्रकार की अर्थापत्तिर निकाली जाय, तो भी ठीक नहीं क्योंकि श्रुति आदिकों में जिस प्रकार धर्म की विधियों का वर्णन है, उस ही प्रकार अधर्म का विरोधियों का वर्णन हैं, उस ही प्रकार अधर्म का निषेध भी है, जैसे-‘परदारान्न गच्छेत्’ पराई स्त्री के समीप गमन न करे, इस तरह के वाक्य धर्माधर्म दोनों के विषय में ही निषेध और विधिरूप से बराबर पाए जाते हैं।
प्रश्न- यदि धर्मादि को आप मानते हैं, तो पुरूष को धर्म वाला मानकर पुरूष में परिणामित्व प्राप्त होता है?