सूत्र :मङ्गलाचरणं शिष्टाचारात्फलदर्शनाच्छ्रुतितश्चेति II5/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : महर्षि कपिल जी ने अपने शास्त्र का सिद्धान्त मुक्ति के साधनों के सम्बन्ध में पहिले चार अध्यायों में विस्तारपूर्वक वर्णंन किया, अब इस अध्याय में वादी प्रतिवादी रूप से जो शास्त्र में सूक्ष्मतापूर्वक कही हंई बातें हैं, उनका प्रकाश करेंगे। कोईवादी शंका करता है, कि मंगलाचरण करना व्यर्थ है, इस विषय को हेतुगर्भित वाक्यों में प्रतिपादन करते हैं।
।।१।। अर्थ- मंगलाचरण करना अवश्य चाहिए क्योंकि शिष्टजनों का यही आचार है और प्रत्यक्ष में भी यह फल दीखता है। जो उत्तम आवरण करता हैं, यही सुख भोगता है। ‘अहरहः सन्ध्यामुपासीत, अहरहोऽग्निहोत्र जूहूयात्। रोज-रोज सन्धा करनी चाहिए, रोज-रोज अग्निहोत्र करना चाहिए, इत्यादि श्रुतियां भी अच्छे ही आचरणों को कहती हैं। बहुतेरे मनुष्य मंगलाचरण का यह अर्थ समझते हैं कि जब नये ग्रन्थ की रचना की जाय, तब उस मंगलाचरण का वैसा अर्थ नहीं हो सकता, दूसरे यदि ग्रन्थ के आदि में मंगल किया तो अन्यब अमंगल होगा, तीसरे कादम्बर्यादि ग्रन्थों में मंगल के होने पर भी उनकी निर्विघन समाप्ति नहीं हुई, इस वास्ते ऐसा बनना किस प्रकार श्रेष्ठ नहीं। इस विषय को संक्षेपतः लिखा है, इसका विस्तार बहुत है। अन्य ग्रन्थ में कर्म का फल आप होता है, इस पक्ष का खण्डन करते हैं।