सूत्र :राजपुत्रवत्तत्त्वोपदेशात् II4/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इस अध्याय में विवेक के साधनों का वर्ण करेंगे-
।।१।। अर्थ- पूर्व सूत्र से यहां विवेक की अनवृत्ति आती है राजा के पुत्र के समान तत्त्वोपदेश होने से विवेक होता है। यहां यह कथा है कि कोई राजा का पुरूष पुत्र गंडमाला रोग से युक्त अत्पन्न हुआ था, इस कारण वह शहर में से निकाल दिया गया और उसको किसी शवर (भोल) ने पाल लिया। ज बवह बड़ा हो गया, तब अपने का भी शवर मानने लगा कालान्तर में राजपुत्र को जीता हुआ देखकर कोई वृद्ध मन्त्री बोला- वत्स (पुत्र) तू शवर नहीं हैं किन्तु राजपुत्र हैं, ऐसे वाक्यों को सुनकर वह राजपुत्र शीघ्र ही उस शवरभाव के मान को त्याग कर सात्विक राजभाव को धारण करने लगा कि मैं तो राजा हूं। इस प्रकार चिरबद्ध जीव भी अपने को बद्ध मानता है और जब तत्त्वोपदेश से उसको ईश्वर विषयक ज्ञान होता हैं, तब विवेकोत्पत्ति से उसको मुक्ति प्राप्त होती है। इस सूत्र के अर्थ से कोई-कोई टीकाकार ‘‘ब्रह्यास्मि’’ वाला सिद्धान्त निकालते हैं कि जीव पहिले ब्रह्य था, इस कारण मुक्त था किन्तु अज्ञान से बंध गया है, जब तत्त्वोपदेश हुआ तो विवेक होने से मुख्ति हो गई। लेकिन ऐसा मानना ठीक नहीं है क्योंकि पहिले तो ग्रन्थ के आरम्भ में इस बात का खण्डन किया हैं, दूसरे सूत्र में जो राजपुत्र ऐसा शब्द कहा है उससे प्रत्यक्ष मालूम होता है कि आचार्य जीव औ ब्रह्य में भेद मानते हैं, इस वास्ते जीव को छोटा मानकर ‘रापत्रवत् ऐसा कहा है, नहीं तो राजवत् ऐसा हो कह देते, किन्तु दो अक्षरों का अधिक कहना इसी आशय से है कि कोई एक ब्रह्य के रूपान्तर का अर्थ न समझ ले।