सूत्र :चक्रभ्रमणवद्धृतशरीरः II3/82
सूत्र संख्या :82
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे कुम्हार का चाक भोलुआ इत्यादि के बनाने के समय डंडे से चलाया जाता है और कुम्हार बर्तनों को बना कर उतार भी लेता हैं, लेकिन उसे चलाने का ऐसा वेग होता है कि पीछे बहुत देर त कवह चत्र घूमता रहता है, इसी तरह ज्ञान के उत्पन्न होते ही यद्यपि नये कमं उत्पन्न नहीं होते तथापि प्रारब्ध कर्मों के वेग से शरीर को धारण किये हुए जीवन्मुक्त रहता है।
प्रश्न- यद्यपि चक्त के घुमने में डण्डे की कोई ताड़ना उस समय नहीं है, तो भी वह पहिली ताड़ना के कारण से चलता है किन्तु जब जीवन्मुक्त के सब रागादि नाश हो जाते हैं, तो तो उपयोग किसके महारे से करता है?