सूत्र :प्रदीपार्चिःसंतत्यभिव्यक्तग्रहणव-त्तद्ग्रहणम् II3/2/49
सूत्र संख्या :49
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : बुद्धि के अस्थिर होने पर भी पदार्थों का ठीक-ठीक ज्ञान होता है। जैसे दीपक की किरणों का प्रत्येक क्षण में नाश होता जाता है और नई-नई किरणों का प्रत्येक क्षण में नाश होता जाता है और नई-नई किरणें बत्ती में पैदा होती जाती है, परन्तु उनसे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। उत्पन्न होने से दीपक की किरणें तथा उन किरणों से जिन का प्रकाश होता हैं, ये दोनों अनित्य हैं, अर्थात् न तो दीपक की किरणें ही स्थिर रहती हैं और न वे पदार्थ ही जिनका उन किरणों से मालूम करते हैं, स्थिर रहते हैं, प्रत्येक वस्तु के साथ बुद्धि का सम्बन्ध होने से उन पदार्थों के समान बुद्धि वृत्तियां भी अनित्य है। जैसे दीप किरणें अस्थिर होने पर भी ठीक-ठीक अर्थ का प्रकाश करती हैं, ऐसे ही बुद्धिवृत्तियां अनित्य होने पर भी यथार्थ ज्ञान का कारण होती है।
बुद्धि अनित्यता का प्रकरण समाप्त हुआ, अब यह विचार किया जाता है कि चेतनता शरीर का धर्म है न किसी अन्य का ? प्रथम सन्देह का कारण कहते हैं: