सूत्र :न कार्याश्रयकर्तृवधात् II3/1/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : हम नित्य आत्मा के नाश का हिंसा नहीं कहते, किन्तु नित्य आत्मा जिस शरीर और इन्द्रियों के साथ मिलकर काम करता हैं, उनके उपघात को हिंसा कहते हैं। इसलिए हमारे मत में उक्त दोष नहीं आता।
व्याख्या :
प्रश्न -जबकि शरीर के नाश से आत्मा को कुछ हानि नहीं पंहुचती और वह उस शरीर से निकल कर दूसरे शरीर में चला जाता है तो उसकी हिंसा से पाप क्यों होता और उसको उस शरीर के छोड़ने में दुःख क्यों होता हैं ?
उत्तर -जिस शरीर में आत्मा रहती हैं उसको अहंकार के कारण वह अपना समझता हैं, इसलिए उससे उसको एक प्रकार का अनुराग होता है उस अनुराग के कारण उस शरीर को छोड़ने में वह दुःख मानता हैं, अतएव आत्मा को शरीर से वियुक्त करने ही का नाम हिंसा या मृत्यु हैं, न कि आत्मा के नाश का।
आत्मा के देह से भिन्न होने में एक हेतु और देते हैं:-