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न्याय दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात् II3/1/1
सूत्र संख्या :1

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अथ तृतीयोऽध्यायः दूसरे अध्याय के दूसरे आह्निक में प्रमाणों की परीक्षा तो हो चुकी, अब प्रमेयों की जो प्रमाणों से परखे जाते हैं, परीक्षा आरम्भ की जाती हैं। प्रमेयों में पहला और मुख्य आत्मा है, इसलिए सबसे पहले उसी की परीक्षा आरम्भ की जाती है। प्रथम यह सन्देह उत्पन्न होता है कि क्या देहेन्द्रिय बुद्धि आदि के सडघात का नाम ही आत्मा है, या आत्मा इनसे कोई भिन्न पदार्थ है। प्रश्न -यह सन्देह क्यों हुआ ? उत्तर - दो प्रकार का व्यपदेश होने से। प्रश्न - व्यपदेश किसे कहते हैं ? उत्तर -जिसमें कत्र्ता, क्रिया और करण का सम्बन्ध वर्णन किया जावे। प्रश्न - वह दो प्रकार का व्यपदेश क्या है ? उत्तर -पहला अवयव से अवयवी का व्यपदेश होता है, जैसे कहा जावे कि जड़ से वृक्ष की स्थिति है या स्तम्भों से मन्दिर स्थित है इत्यादि। दूसरा अन्य से अन्य का व्यपदेश होता है, जैसे कुल्हाड़ी से काटता है, दीपक से देखता है इत्यादि। आत्मा के लिए जो यह कहा जाता है, कि आंख से देखता हैं, मन से जानता हें, बुद्धि से सोचता है और देह से सुख-दुःख भोगता हैं, यह व्यपदेश पहले प्रकार का है या कि दूसरे प्रकार का। यदि पहले प्रकार का है तो देहादि आत्मा के अंग हैं और यदि दूसरे प्रकार का है तो वह उनसे भिन्न है। अब आगे यह सिद्ध किया जायेगा कि आत्मा में दूसरे प्रकार का व्यपदेश सिद्ध होता है - प्रथम इन्द्रिय चैतन्य वादियों का खण्डन करते हैं:- जिस वस्तु को आंख से देखते हैं, उसी को हाथ से उठाते या त्वचा से स्पर्श करते हैं और कहते है कि जिसको हमने आंख से देखा था, उसी को त्वचा से स्पर्श करते हैं , या जिसको स्पर्श किया था, उसको आंख से देखते हैं। नींबू को देखकर जिह्या में पानी भर आता हैं, यदि इन्द्रिय ही ज्ञाता होते तो ऐसा कभी नहीं हो सकता था, क्योंकि और के देखे का और को कभी स्मरण नही हो सकता, फिर आंख के देखे हुए विषय का जिह्या से या त्वचा से क्योंकर अनुभव किया जाता। जो आंख से देखकर फिर उसी अर्थ का त्वचा या रसना से ग्रहण करता हैं, वह ग्रहीता इन इन्द्रियों से पृथक है। अतः इस पर शंका करते हैं:-