DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :तद्व्यवस्था-नादेवात्मसद्भावादप्रतिषेधः II3/1/3
सूत्र संख्या :3

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यदि प्रत्येक इन्द्रिय सब विषयों के जानने में निरपेक्ष स्वतन्त्र होता या सब मिलकर ही सर्वज्ञ होते तो कौन उनसे भिन्न चेतन का अनुमान करता। जबकि प्रत्येक इन्द्रिय प्रत्येक विषय के वास्ते के वास्ते नियत हैं, अपने विषय के सिवाय वह दूसरे विषय का ज्ञान कराने में असमर्थ हैं। इसी से तद्भिन्न चेतन आत्मा का अनुमान किया जाता है। इन्द्रिय भृत्यों के सदृश अपना-अपना काम करते हैं, इनसे नियत काम लेने वाला कोई अध्यक्ष (स्वामी) है, जो इनसे काम लेता है, ये उसके कारण मात्र है। इसके अतिरिक्त एक इन्द्रिय या सब इन्द्रियों के विकृत हो जाने पर भी देह स्थित रहता है, यदि इन्द्रिय ही चैतन्य होते तो उनके न रहने पर देह का भी अवसान हो जाना चाहिए था। यदि इन्द्रियों के अतिरिक्त और कोई आत्मा न होता तो सबको यह ज्ञान होना चाहिए था कि ‘मैं‘ आंख हूं, मैं कान हूं, परन्तु कोई ऐसा नहीं समझता, प्रत्युत सब यही कहते हैं कि ‘मेरी आंख है, मेरा कान है‘ इत्यादि। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है। इसके अतिरिक्त जिस विषय को हमने आज देखा है, इस वर्ष के बाद फिर हम उसका स्मरण करते हैं और वह हमको प्रत्यक्ष सा मालूम देता है। यदि इन्द्रिय ही चैतन्य होते तो ऐसा नहीं हो सकता था, इन कारणों से सिद्ध है कि आत्मा इन्द्रियसंड्घात से पृथक है। अब देहात्मवादियों का खण्डन करते हैं:-

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