सूत्र :सामान्यवतो धर्मयोगो न सामान्यस्य II2/2/51
सूत्र संख्या :51
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : . सामान्यवान = सुवर्ण में किसी धर्म (गुण) का योग हो सकता है, न कि सामान्य = सुवर्णत्व में कोई गुण रह सकता है, क्योंकि जब वह आप धर्म है तो फिर कुण्डलादि आभूषण उसके धर्म नहीं हो सकते, किन्तु सुवर्ण के हो सकते हैं। जोकि वर्णत्व धर्म सामान्य है जोकि इकार और यकार दोनो में रहता हैं, इसलिए उसके धर्म ही नहीं सकते, जिससे इकार यकार को बराबर मानकर यकार को इकार का विकार माना जावे, अतएव विकार मानना ठीक नहीं। इसी पक्ष की पुष्टि करते हैं:-