सूत्र :विकारधर्मित्वे नित्यत्वाभावा-त्कालान्तरे विकारोपपत्तेश्चाप्रतिषेधः II2/2/55
सूत्र संख्या :55
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : धर्मों के वैषम्य से जो वर्ण में विकाराऽभाव का खण्डन किया गया था, वह ठीक नहीं, क्योंकि कोई विकारी पदार्थ नित्य नहीं देख पड़ता किन्तु सब नित्य पदार्थ अविकारी होते है। यदि कहो कि कालान्तर में तो विकार की उत्पत्ति हो सकती हैं, तब जैसे वर्ण के न रहने पर उसका ज्ञान माना जाता है, ऐसे ही कालान्तर में होने वाले विकार की प्रतिपत्ति माननी पड़ेगी यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इकार के उच्चारणकाल में यकार और यकार के श्रवणकाल में इकार नहीं रहता। इसलिए शब्द का विकार मानना ठीक नहीं। इसी की पुष्टि में एक हेतु और देते हैं:-