Manu Smriti
आर्य समाज और डॉ. अम्बेडकर
 
प्राक्कथन: राजेन्द्र ’जिज्ञासु

डॉ0 अम्बेडकर ने वेद व वैदिक मान्यताओं के विरूद्ध जो कुछ भी कहा था, लिखा है, वह रूढ़िवादियों के घृणित व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र था, अन्यथा उनका वेद से कोई विरोध नहीं था। ’धम्मपद‘ में भी तो कोई एक भी शब्द वेद की निन्दा में नहीं मिलता।  

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द्वे-वचसि: कुशलदेव शास्त्री

उपन्यास सम्राट् प्रेमचन्द (1880-1936) माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के समाज-सुधार विषय रचनात्मक कार्यों से सुपरिचित थे, अतः उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित ’हंस‘ मासिक के अगस्त-1933 के मुखपृष्ठ पर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर का चित्र छापा था। अप्रैल-1936 में लाहौर आर्यसमाज की जुबली के अवसर पर ”आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् प्रेमचन्दजी ने आर्यसमाज पर टिप्पणी करते हुए कहा था -“      ”मैं तो आर्यसमाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूँ, उतनी ही तहजीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूँ। उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। दलितों के उद्धार में सबसे पहले आर्यसमाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर पर है। जातिगत भेदभाव और खान-पान में छूत-छात और चैके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषय को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। “

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आर्य समाज और डॉ0 अम्बेडकर: कुशलदेव शास्त्री

श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज आर्यसमाजी होते हुए भी सत्यशोधक समाज के भी सहयोगी और प्रशंसक रहे, तथा डॉ0 अम्बेडकर महात्मा फुले के शिष्य होते हुए भी स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रशंसक होने के साथ-साथ समालोचक भी हैं, 

हाँ ! आर्यसमाजी आन्दोलन के डॉ0 अम्बेडकर हमेशा से ही हितैषी रहे हैं।

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बड़ौदा आर्य नरेश द्वारा मेधावी डॉ0 अम्बेडकर की शिक्षा: कुशलदेव शास्त्री

जहाँ आर्यनरेश  श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने सन् 1912 से 1915 तक डॉ0 भीमरावजी अम्बेडकर को उच्च विद्याविभूषित करने के लिए शिष्यवृत्तियाँ प्रदान कीं और उन्हें अमेरिका भेजा, वहाँ अपने आपको हृदय से आर्यसमाजी कहलानेवाले राजर्षि शाहू महाराज ने भी सन् 1919 से 1922 तक अम्बेडकर की विदेश जाकर अध्ययन करने के लिए आर्थिक दृष्टि से सम्पूर्ण सहयोग दिया था।


आर्य नरेश कोल्हापुर का सक्रिय सहयोग

कोल्हापुर के आर्य नरेश शाहू महाराज ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि ’डॉ0 अम्बेडकर भारतवर्ष के अखिल भारतीय नेता होंगे।‘ तत्कालीन मुम्बई राज्य के इन दोनों राजाओं के पास जो यह उदारमन और उदारदृष्टि थी, उसकी पृष्ठभूमि में मुझे स्वामी दयानन्द खड़े हुए नजर आते हैं। इन दोनों ही आर्यनरेशों के अन्तःकरण पर निर्विवाद रूप से आर्यसमाजी आन्दोलन की विशिष्ट छाप रही है।


आर्यसमाज की प्रगतिशील दृष्टि: कुशलदेव शास्त्री

स्वामी दयानन्द की दृष्टि में वेद पढ़ने का अधिकार मानवमात्र को था

महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी का यज्ञोपवीत संस्कार करने में हिचककिचाहट करने वाले रूढ़िवादी पण्डितों की परम्परागत संकीर्णता 20वीं सदी में भी ज्यों की त्यों बनी हुई थी, जबकि स्वामी दयानन्द ने वेद के आधार पर ही यह सिद्ध किया था कि मानवमात्र के साथ समस्त स्त्री-शूद्रों को भी वेदाध्ययन करने का अधिकार है। 

रूढ़िवादी पण्डितों की इस संकीर्णता से बेचैन होकर श्री सयाजीराव गायकवाड़ और शाहू महाराज आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। इन आर्यनरेशों ने केवलमात्र डॉ0 भीमराव अम्बेडकर को ही नहीं, अपितु अन्य प्रतिभावान् दलितों को भी छात्रवृत्तियाँ प्रदान की थीं।

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अम्बेडकरजी द्वारा नमस्ते अभिवादन का प्रयोग: कुशलदेव शास्त्री

माननीय अम्बेडकर जी द्वारा ’नमस्ते‘ अभिवादन अपना लेने की पुष्टि उनके ही द्वारा लन्दन से भेजे गये तीन पत्रों से होती है। पहले दो पत्र उन्होंने अपने घनिष्ठ सहयोगी और सचिव श्री सीताराम नामदेव शिवतरकर को भेजे हैं, और तीसरा पत्र श्री अम्बेडकरजी ने अपनी सहधर्मिणी रमाबाई को लिखा है। डॉ0 अम्बेडकरजी की अभिवादन शैली के कुछ नमूने काल क्रमानुसार इस प्रकार हैं –     

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डॉ अम्बेडकर का वैदिक संस्कारों की ओर झुकाव : कुशलदेव शास्त्री

  डॉ0 अम्बेडकरजी के 6, सितम्बर-1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ में यह समाचार भी प्रकाशित हुआ था कि ’मनमाड़ के महारों (दलितों) ने श्रावणी मनायी।‘ 26 व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण किये। यह समारोह मनमाड़ रेल्वे स्टेशन के पास डॉ0 अम्बेडकरजी के मित्र श्री रामचन्द्र राणोजी पवार नांदगांवकर के घर में सम्पन्न हुआ था।


जातिगत भेदभाव के कारण किराये का घर पाना भी दुर्लभ: कुशलदेव शास्त्री

8-12-1923 से 2-9-1930 तक लिखे अनेक पत्रों से यह पता चलता है कि लगभग सात वर्ष तक डॉ0 अम्बेडकरजी के पत्र व्यवहार का पता परल मुम्बई स्थित ’दामोदर ठाकरसी हॉल‘ ही रहा। यह ठाकरसी घराना प्रगतिशील आर्यसमाजी और सुसंस्कृत था। दामोदर ठाकरसी के पिता श्री मूलजी ठाकरसी स्वामी दयानन्द जी की उपस्थिति में स्थापित विश्व की सर्वप्रथम ’आर्यसमाज मुम्बई‘ की कार्यकारिणी के सभासद थे

 


जातिनिर्मूलन और वर्ण-व्यवस्था विषयक दृष्टिकोण: कुशलदेव शास्त्री

डॉ0 अम्बेडकरजी के इस अध्यक्षीय भाषण के साथ जो परिशिष्ट जोड़ा गया है, उसमें महात्मा गाँधी की तुलना में उन्होंने ”स्वामी दयानन्द द्वारा अनुमोदित वर्ण-व्यवस्था की बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी” कहा है।

मुझे स्वीकार करना होगा कि वर्ण का वैदिक दर्शन जो स्वामी दयानन्द और कुछ अन्यों ने दिया है, वह समझदारीपूर्ण और बगैर हानिकारक है, क्योंकि वह व्यक्ति विशेष का समाज में स्थान निर्धारित करने के लिए जन्म को निर्णायक तथ्य नहीं मानता। वह केवल गुण को स्वीकार करता है। जबकि महात्मा गान्धी का वर्ण-व्यवस्था के प्रति दृष्टिकोण न केवल वैदिक वर्ण-व्यवस्था को फालतू की वस्तु बना देता है, अपितु घृणित भी बना देता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि महात्मा गान्धी की तुलना में स्वामी दयानन्द प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था से डॉ0 अम्बेडकर सहमत हैं और इसीलिए उन्होंने उसे ’बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी‘ कहा है।


लाला लाजपतराय और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

लाला लाजपतराय जी (1865-1928) की मृत्यु का समाचार सुनकर डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अत्यन्त ही व्यथित हो गये। (स्वामी श्रद्धानन्द के बलिदान को छोड़कर अन्य) किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु से पूर्व और पश्चात् वे इतने व्यथित नहीं हुए थे। उसी रात उन्होंने ’बहिष्कृत भारत सभा‘ की ओर से सार्वजनिक शोक सभा का आयोजन किया था। उसमें लालाजी पर भाषण करते समय उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उन्होंने अपने समस्त सार्वजनिक जीवन में किसी भी राष्ट्रीय नेता की मृत्यु के बाद शोक सभा का आयोजन नहीं किया था और न ही श्रद्धांजलि परक शोक सभा में भाषण दिया था। नत्थूराम गोड़से की तीन गोलियों से दि0 30-1-1948 को महात्माजी का खून हुआ, तब भी डॉ0 बाबासाहब गान्धीजी के विषय में या उनकी मृत्यु के विषय में एक शब्द भी नहीं बोले थे।”


स्वामी श्रद्धानन्द और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

जातिनिर्मूलन और दलितोद्धार के सन्दर्भ में आर्यसमाज के प्रामाणिकतापूर्ण ठोस-क्रियाकलापों से डॉ0 अम्बेडकर अत्यन्त ही प्रभावित थे। स्वामी दयानन्द के अनुयायी गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926) के सन्दर्भ में वे अपनी रचना ’व्हासॉट कांग्रेस एण्ड गाँधी हैव डन टू दि अन्टचेबल्स‘ में लिखते हैं कि ’स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सर्वश्रेष्ठ सहायक और समर्थक थे।‘ अस्पृश्यता-निवारण से सम्बन्धित (कांग्रेस की) समिति में रहकर यदि उन्हें स्थिरता से काम करने का अवसर मिल पाता तो निःसन्देह एक बहुत बड़ी योजना आज हमारे सामने विद्यमान होती।“


जात-पाँत तोड़क मण्डल का आर्यसमाज से आत्मीय सम्बन्ध: डॉ. कुशलदेव शाश्त्री

शायद बहुत ही कम लोगों को यह मालूम हो कि आर्यसमाज के जो प्रमुख कार्यकत्र्ता थे, वे जातपाँत तोड़क मण्डल के भी कार्यकत्र्ता थे। वैधानिक दृष्टि से हमारे कुछेक मित्रों का यह कथन ठीक है कि जात-पाँत तोड़क मण्डल एक स्वतन्त्र संस्था है और उसका आर्यसमाज से कोई सम्बन्ध नहीं है। पर गहराई से देखा जाए तो जात-पाँत तोड़क मण्डल और आर्यसमाज का अविभाज्य सा आत्मीय सम्बन्ध था। इस मण्डल के अधिकांश सभासद वैदिक मतावलम्बी थे।

20 फरवरी 1925 में मुम्बई के डॉ0 कल्याणदास देसाई की अध्यक्षता में जातपाँत तोड़क मण्डल का जो वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन को सम्बोधित करने वाले अधिकांश व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे। जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 घासीराम (1873-1934), स्वामी मुनीश्वरानन्द, स्वामी सत्यदेव आदि उल्लेखनीय हैं। इस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुआ था, उससे भी इस मण्डल पर आर्यसमाज की छाप या प्रभुत्व की बात स्पष्ट होती है, प्रस्ताव निम्न प्रकार है

”इस मण्डल की सम्मति में आजकल जो वर्ण-व्यवस्था प्रचलित है, वह बुरी है, इसलिए आवश्यक है कि खान-पान और विवाह विषयक बन्धनों को उठा दिया जाए, इसलिए यह मण्डल प्रत्येक आर्य युवक-युवती को प्रेरणा देता है कि विवाह आदि के कार्यों में जो मौजूदा बन्धन है, उन्हें जान-बूझकर तोड़ें और जात-पाँत के बाहर विवाह करें।


मास्टर आत्माराम अमृतसरी और डॉ0 अम्बेडकर : डॉ कुशलदेव शाश्त्री

जब दलितों को विधर्मी बनते देख बड़ोदरा नरेश ने अपनी रियासत में दलितोद्धार के कार्य को प्रभावशाली बनाने का संकल्प किया, तब उन्होंने स्वामी दयानन्द के शिष्य आर्य सन्यासी स्वामी नित्यानन्द ब्रह्मचारी (1860-1914) से ऐसे व्यक्ति की माँग की जो उच्चवर्णीय होते हुए भी दलितों में ईमानदारी से कार्य कर सके, तो उस समय स्वामी नित्यानन्द जी ने मास्टर आत्माराम जी से अनुरोध किया। तदनुसार पं0 आत्मारामजी ने सन् 1908 से 1917 तक बड़ोदरा रियासत में और तत्पश्चात् कोल्हापुर रियासत में दलितोद्धार का कार्य किया। दलितों में उनके द्वारा किये गये कार्य की महात्मा गाँधी, कर्मवीर विट्ठल रामजी शिंदे, श्री जुगल किशोर बिड़ला, इन्दौर नरेश तुकोजीराव होल्कर आदि ने मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। (आदर्श दम्पत्ति: सुश्री सुशीला पण्डिता)।


बाबासाहब अम्बेडकर का आर्यसमाज बड़ोदरा में निवास (1913): डॉ कुशलदेव शाश्त्री

”भीमराव बड़ोदरा में 23 जनवरी 1913 के आस-पास पधारे थे। वहाँ प्रशासन की ओर से उनके निवास और भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाई थी, अतः वे सबसे पहले वहाँ की दलित बस्ती (महारवाड़े) में दो-तीन दिन रहे। वह जगह हर प्रकार से असुविधाजनक थी। वहीं पर उनका पं0 आत्मारामजी से परिचय हुआ। पण्डितजी पंजाबी आर्यसमाजी थे, वे बड़ोदरा रियासत की दलितों की पाठशाला के इन्स्पैक्टर थे। वे ही भीमराव को अपने साथ आर्यसमाज के कार्यालय में ले गये। जब तक अन्यत्र कहीं व्यवस्था नहीं होती, तब तक भीमराव ने वहीं रहने का निश्चय किया। वह जगह श्री भीमराव को जिस कार्यालय में काम करना था, वहाँ से डेढ़ मील की दूरी पर थी।“


बड़ोदरा के आर्यनरेश द्वारा श्री अम्बेडकर को छात्रवृत्ति: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

बड़ोदरा आने से पूर्व श्री अम्बेडकरजी ने प्रशासन को अपनी नौकरी के साथ निवास-भोजनादि का प्रबन्ध करने के लिए लिखा था। प्रत्युत्तर में उन्हें त्वरित बड़ोदरा आकर अपनी सेवा शुरू करने का आग्रह किया गया था, पर निवास-भोजनादि की व्यवस्था के विषय में उसमें किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था, अतः इससे पूर्व के आत्मीयता पूर्ण व्यवहार को ध्यान में रखते हुए डॉ0 अम्बेडकर जब बड़ोदरा आये तो सबसे पहले पं0 आत्माराम जी अमृतसरी के पास ही पहुंचे। उन्होंने ही अपने परिचय से डॉ0 अम्बेडकरजी की निवास, भोजन की व्यवस्था एक पारसी सज्जन के यहाँ पर करवा दी। इस समय पं0 आत्मारामजी के सुपुत्र श्री आनन्दप्रिय आगरा में बी0 ए0 कर रहे थे। उनके परिवार के अन्य सदस्य भी बड़ोदरा में नहीं थे। अकेले पं0 आत्मारामजी ही आर्यसमाज में रह रहे थे।


बाबासाहब के निर्माण में आर्यसमाज की त्रिमूत का अविस्मरणीय सहयोग:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

लन्दन से वापस लौटने पर बैरिस्टर अम्बेडकर ने जून 1923 में अपना वकालत का व्यवसाय प्रारम्भ किया। 5 जुलाई 1923 को वे हाईकोर्ट के वकील भी बने, पर दलितों के प्रति समाज में उपेक्षा भाव होने के कारण उनकी आय इतनी नहीं थी कि वे अनुबन्ध के अनुसार बड़ोदरा प्रशासन के ऋण से उऋण हो चुकी थी। बड़ोदरा रियासत की ओर से पैसे वापस करने के लिए तकाजा लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने 9 दिसम्बर 1924 को आर्यसमाजी विद्वान् पं0 आत्मारामजी अमृतसरी को याद किया और पत्र लिखकर उन्हें यह स्पष्ट किया कि ’हमारी आर्थिक परिस्थिति अभी ऐसी नहीं हो पाई है कि हम किसी निश्चित कालावधि तक हफ्ते-हफ्ते से अपना कर्ज वापस कर सकें। तत्काल पं0 आत्मारामजी ने बड़ोदरा प्रशासन को डॉ0 अम्बेडकरजी की व्यथा से सुपरिचित कराया और उन्हें इस विषय में सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का अनुरोध किया। फलस्वरूप बड़ोदरा नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने इस कर्ज प्रकरण को ही सदा-सदा के लिए रद्द कर दिया।


आर्य महापुरुषों के प्रति डॉ0 अम्बेडकरजी का कृतज्ञता भाव:डॉ कुशलदेव शाश्त्री

स्वामी श्रद्धानन्दजी के विषय में डॉ0 अम्बेडकरजी लिखते हैं -’स्वामीजी अति जागरूक एवं प्रबुद्ध आर्यसमाजी थे और सच्चे दिल से अस्पृश्यता को मिटाना चाहते थे।‘ सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय व आर्यसमाजी नेता लाला लाजपतराय की सन् 1915 में ही अमेरिका के एक पुस्तकालय में श्री अम्बेडकरजी से मुलाकात हुई थी। लालाजी ने तब इस भारतीय विद्यार्थी से बड़ी ही आस्थापूर्वक कुशलक्षेम पूछकर राष्ट्रीय विषयों की चर्चा की थी। अम्बेडकरजी दलित समाज से सम्बद्ध हैं, यह जानकारी तो लालाजी को बहुत-सा काल गुजरने के बाद ही मिली। लालाजी के सम्बन्ध में डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा है-’उनके पिताजी आर्यसमाजी थे, अतः उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलाई गई थी। राजनीतिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। दलितोद्धार के आन्दोलन में वे विश्वसनीय प्रामाणिकता और सहानुभूति के साथ शामिल थे।‘


पं0 धर्मदेव सिद्धान्तालंकार और डॉ0 अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

27 फरवरी 1954 की रात को ’आस्तिकवाद‘ विषय पर माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से उन्हीं के 1-हार्डिंग्ज ऐवेन्यू, नई दिल्ली के बंगले में पं0 धर्मदेवजी की बात हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी से हुई बातचीत को उन्होंने ’सार्वदेशिक‘ जुलाई 1951 के अंक में भी प्रकाशित किया था। इससे पूर्व 12 मई 1950 को भी पं0 धर्मदेवजी की माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी से बातचीत हुई थी। डॉ0 अम्बेडकरजी ने कलकत्ता की ’महाबोधि सोसाइटी‘ के अंग्रेजी मासिक पत्र ’महाबोधि‘ के अप्रैल-मई 1950 के अंक में ’बुद्धा एण्ड द फ्यूचर ऑफ हिज रिलीजन‘ नामक एक प्रदीर्घ लेख लिखा था। जिसे पढ़कर, पं0 धर्मदेवजी ने ’बौद्धमत और वैदिक धर्म: तुलनात्मक अनुशीलन‘ नामक ग्रन्थ लिखा था। अब यह दुर्लभ ग्रन्थ घुमक्कड़ धर्मी आचार्य नन्दकिशोरजी, इतिहासवेक्ता प्रा0 राजेन्द्रजी ’जिज्ञासु‘ वानप्रस्थी तथा प्रभाकरदेवजी आर्य के अनथक प्रयासों से सुलभ हो गया है।


डॉ बालकृष्ण और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

 सन् 1922 से डॉ0 बालकृष्ण ने आर्यसमाज कोल्हापुर के प्रधान के रूप में कार्य करना शुरू किया था। 1922 से लेकर लगभग 1940 तक उन्होंने आर्यसमाज के माध्यम से दलितोद्धार का जो उज्जवल कार्य किया, वह अविस्मरणीय है। डॉ0 बालकृष्ण साहब के अन्तःकरण में दलितों के प्रति अतिशय आत्मीयता और सहानुभूति थी। उनकी सर्वांगीण उन्नति के लिए डॉ0 साहब ने अपनी ओर से बहुत से प्रयास स्वयं किये ही, अन्यों से भी इस क्षेत्र में जितना कार्य वे करवा सकते थे, उतना उन्होंने करवाया। दलितों के महान व विद्वान् नेता डॉ0 अम्बेडकर व डॉ0 बालकृष्ण साहब का आपस में अत्यन्त घनिष्ठ व स्नेहिल सम्बन्ध था। (पृष्ठ 199)। डॉ0 अम्बेडकर (1891-1956) से डॉ0 बालकृष्ण (1882-1940) आयु में नौ वर्ष बड़े थे। दोनों ही अर्थशास्त्र तथा इतिहास के विद्वान्, उत्तम वक्ता और लेखक थे।


स्वामी वेदानन्द तीर्थ और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

’स्वाध्याय-सन्दोह‘ के लेखक स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ (1892-1956) ने भी अपनी पुस्तक ’राष्ट्र रक्षा के वैदिक साधन‘ (1950) का प्राक्कथन डॉ0 बी0 आर0 अम्बेडकर से इसी उद्देश्य से लिखवाया था कि इस पुस्तक को पढ़कर डॉ0 अम्बेडकरजी बौद्ध धर्म से विमुख होकर वैदिक धर्म की ओर उन्मुख हो जाएँगे। उक्त पुस्तक के डॉ0 अम्बेडकरजी लिखित प्राक्कथन को पढ़कर लगता है कि उन्हें उक्त चर्चित पुस्तक ने प्रभावित तो किया, पर वे इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुए। उनके द्वारा बहुत ही सतर्कता के साथ लिखा हुआ प्राक्कथन इस प्रकार है-


पं गंगाप्रसाद उपाध्याय और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

श्री उपाध्याय जी का यह मन्तव्य था कि – ’चाहे फल कुछ भी हो, आर्यसमाज को किसी अवस्था में भी सुधार के विरोधियों का साथ देकर सुधार-विरोधिनी मनोवृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए था। मैं हारूँ या जीतूँ, मुझे कहना तो वही चाहिए, जो सत्य है।‘

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय सार्वदेशिक सभा के मन्त्री (1946-1951) होते हुए भी आर्यसमाजियों को हिन्दू कोड बिल के सन्दर्भ में अपने अनुकूल करने में असमर्थ रहे। पुनरपि उन्होंने आर्यसमाज की इस सनातनी प्रवृत्ति की परवाह न करते हुए, माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी के ‘हिन्दू कोड बिल‘ के अनुकूल ही कई स्थानों पर व्याख्यान दिये। श्री उपाध्यायजी के अनुसार यह भ्रामक और राजनीति प्रेरित प्रचार था कि-हिन्दू कोड बिल-1. भाई-बहिन के विवाह (सगोत्र विवाह) को विहित ठहराता है। 2. तलाक चलाना चाहता है और 3. पुत्रियों को जायदाद में हक दिलाकर हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को नष्ट करना चाहता है।


पं लक्ष्मीदत्त दीक्षित और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

तब माननीय डॉ0 महोदय ने स्पष्ट किया, ’मेरा इस बात पर कोई आग्रह नहीं है कि हिन्दू समाज की एक आचार संहिता हो।‘

द्वितीय भेंट में माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने पं0 दीक्षितजी से कहा-’सनातनधर्मियों के विरोध की मुझे चिन्ता नहीं, क्योंकि वे तो सदा से हर अच्छी बात का विरोध करते आये हैं और छह महीने से अधिक उनका विरोध चलता नहीं। आर्यसमाज से बात करने के लिए मैं हर समय तैयार हूँ, क्योंकि सब बातों में उससे सहमत न होते हुए भी इतना तो मानता ही हूँ कि उसकी बात बुद्धिपूर्वक होती है।


पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का परामर्श: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन का सातवाँ अधिवेशन 27 अक्टूबर से 10 नवम्बर 1951 तक ऋषि निर्वाण के अवसर पर मेरठ नगर में आयोजित किया गया था। उसका स्वरूप क्या हो इस विषय पर पं0 ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु (1892-1964) ने वेदवाणी मासिक, वर्ष 4, अंक-1 में विस्तृत लेख लिखा था। जिसमें श्री जिज्ञासुजी ने डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल पर अपनी राय आर्यसमाज को प्रस्तुत करने का आग्रह करते हुए लिखा था, ”हिन्दू कोड बिल पर आर्यसमाज ने कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की, अब तो यह विचारार्थ उपस्थित भी हो रहा है। मेरे विचार में इस विषय में अवश्य ही निश्चित घोषणा करनी चाहिए। आर्यसमाज को इस कोड बिल की एक-एक धारा को लेकर एक-एक पर अपनी धारणा घोषित करनी चाहिए थी, अब भी करनी चाहिए। जितना अंश ग्राह्म हो, उस पर ग्राह्मता की मोहर लगावें। यदि उसमें कुछ परिवर्तन वा परिवर्धन की आवश्यकता हो, तो भी एक बार इस विषय में निश्चित रूप निर्धारित कर उसकी घोषणा करनी उचित है, घसड़-पसड़ ठीक नहीं“—”हिन्दू कोड बिल पर अपना विचार निःसंकोच स्पष्ट देवें।“ हिन्दू कोड बिल अपने मूल रूप में यथासमय पारित नहीं हो पाया। 1956 में वह बिल संशोधित रूप में आया और दो हिस्सों में बंटकर ”हिन्दू मैरिज एक्ट (हिन्दू विवाह अधिनियम) और हिन्दू सक्सेशन एक्ट (उत्तराधिकार अधिनियम)“ के नाम से पास हो गया।


पं शिवपूजन सिंह और डॉ अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

पं0 शिवपूजनसिंह-शिवाजी शूद्र नहीं, वरन् क्षत्रिय थे, इसके लिए अनेकों प्रमाण इतिहासों में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ, महामहोपाध्याय डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी0 लिट् लिखते हैं-’मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहनेवाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल-पुरुष मेवाड़ के सीसोदिया राजवंश से ही था।‘ कविराज श्यामलदासजी लिखते हैं-‘शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे।‘ यही सिद्धान्त डॉ0 बालकृष्ण जी एम0ए0डी0 लिट्, एफ0आर0एस0एस0 का भी है।

इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नहीं, किन्तु शुद्ध क्षत्रिय हैं। श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य एम0 ए0, श्री ई0बी0 कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं0 नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम0एम0डी0एल0 आदि विद्वान् राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते थे। प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है, अर्थात् जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत एक ही श्रेणी के हैं।


पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।


पं. रघुनाथप्रसाद पाठक और डॉ. अम्बेडकर: डॉ कुशलदेव शाश्त्री

अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।


गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?

डॉ अम्बेडकर जी द्वारा डी. ए. वी. कॉलेज-लाहौर के संचालकों का अभिनन्दन)

”एक बार की बात है, नागपुर कॉलेज में पढ़ रहा एक ’महार‘ विद्यार्थी प्रधानाचार्य के पास गया तथा अपने घर की ओर लौट जाने की अनुमति माँगते हुए उसने उनसे कहा कि-’ब्राह्मण से हमारा झगड़ा हो गया है और मैं एकाध ब्राह्मण की हत्या कर सका तो यह समझूँगा कि मेरा जन्म सार्थक हो गया है।‘ यह इस बात का प्रमाण है कि पददलित, पीड़ित, व्यथित, युवा दलित सुशिक्षित हो तो उसके मन में क्या-क्या और कैसे-कैसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट और सिद्ध है।


डॉ. अम्बेडकरजी की लाला लाजपतराय जी को श्रद्धांजली

 यह सोसाइटी सामाजिक और राजनीतिक विषय में एक जैसे प्रगतिशील कार्यकत्र्ता निर्माण करने का कार्य उत्साह और साहस के साथ कर रही है। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने काफी कष्ट सहन किये हैं। इस प्रकार लाला लाजपतरायजी का चरित्र विविधांगी है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में वे अपना अनमोल योगदान दे गये हैं और उनके कालवश हो जाने के उपरांत भी उनके बहुमुखी रचनात्मक कार्य उनके सचेतन स्मारक के रूप में चिरस्थायी एवं अमर रहेंगे।


डॉ अम्बेडकर जी द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी का अभिनन्दन

”स्वामीजी दलितों के सर्वोंत्तम हितकत्र्ता व हितचिन्तक थे“ ये उद्गार डॉ0 अम्बेडकर ने 1945 के ’कांग्रेस और गान्धीजी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया ?‘ नामक ग्रन्थ में अभिव्यक्त किये हैं (पृ0 29-30)। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने जो कार्य किया उसकी उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक प्रशंसा की है। कांग्रेस ने अस्पृश्योद्धार के लिए 1922 में एक समिति स्थापित की थी। उस समिति में स्वामीजी का समावेश था। अस्पृश्योद्धार के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने एक बहुत बड़ी योजना प्रस्तुत की थी और उसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ी निधि की भी माँग की थी, परन्तु उनकी माँग अस्वीकृत कर दी गई। अन्त में उन्होंने समिति से त्यागपत्र दे दिया (पृ0 29)। उक्त ग्रन्थ में स्वामीजी के विषय में वे एक और स्थान पर कहते हैं, ’स्वामी श्रद्धानन्द ये एक एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अस्पृश्यता निवारण व दलितोद्धार के कार्यक्रम में रुचि ली थी, उन्हें काम करने की बहुत इच्छा थी, पर उन्हें त्यागपत्र देने के लिए विवश होना पड़ा‘ (पृ0 223)।


शुद्धि का योग्य समय:किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए:डॉ अम्बेडकर

सन् 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के, हिन्दुओं की मार से बचने के लिए मुसलमान चोटी रखने लगे, माथे पर तिलक लगाने लगे, तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री सोहनलाल शास्त्री से बाबासाहब ने कहा था-”किसी एक आर्यसमाजी नेता को मेरे पास ले आइए। मैं उन्हें समझाकर बतलाऊँगा कि, अब ऐसा समय आ गया है कि उन्हें (मुसलमानों को) हिन्दुओं में शामिल कर लेना चाहिए, वे बेचारे बच जाएँगे और हिन्दुओं की संख्या भी बढ़ेगी“ (41-172)।


समता के सेनानी:छत्रपति शाहू, डॉ0 अम्बेडकर और यशवंतराव चौहान

महाराष्ट्र के ज्येष्ठ इतिहास संशोधक व इतिहासकार डॉ0 जयसिंहराव पवार के अनुसार (राजर्षि शाहू) महाराज ने सामाजिक क्रान्ति की मशाल डॉ0 अम्बेडकर जी के हाथों में सौंपी थी। महार समाज का एक युवक अमेरिका से एम0ए0, पी-एच0डी0 की शिक्षा पाकर आया है, यह जानकर वे अपूर्व आनन्द से भाव-विभोर हो मुम्बई परल स्थित बस्ती में उनसे मिलने गये और उन पर अपना हर्ष-स्नेह उड़ेलते हुए बोले, ”अब मेरी चिन्ता दूर हो गई है। दलितों को उनका नेता मिल गया है।“


दलितोद्धार में दयानन्द के देवदूतों और आर्यसमाज के स्वयंसेवकों की भूमिका

चाँद (अछूत-विशेषांक में अभिव्यक्त दलितों की व्यथा-कथा के आधार पर

श्री नन्दकिशोर तिवारी के संवादकत्त्व में ’चाँद‘ नामक हिन्दी मासिक का ’अछूत‘-विशेषांक मई 1927 में आज से 81 वर्ष पूर्व इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था। अंक के प्रधान सम्पादक नन्दकिशोर जी तिवारी और कम्पोजीटर बंशीलाल जी कोरी थे। विशेषांक के मुख पृष्ठ पर एक श्वेत-श्याम चित्र छपा है जिसमें सरयू पारिण ब्राह्मण तिवारी और कोरी चमार एक थाली और एक टेबल पर सहभोज करते हुए दिखलाई दे रहे हैं। विशेषांक की कुल पृष्ठ संख्या 192 है। यह विशेषांक दलितोद्धार व सामाजिक परिवर्तन के लिए समर्पित है। संपादक ने प्राक्कथन में अंक का उद्देश्य सामाजिक अत्याचारों पर प्रकाश डालना और उसके विरूद्ध आन्दोलन करना बतलाया है।


मनुस्मृति के सन्दर्भ में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर और आर्यसमाज

माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने मनुस्मृति का कटु विरोध क्यों किया ? इस प्रश्न को गहराई से समझने के लिए उन अपमान जनक घटनाओं पर भी ध्यान देना होगा, जो अस्पृश्य समाज को स्पृश्य समाज की ओर से समय-समय पर सहन करनी पड़ीं। उदाहरण के तौर पर सन् 1927 के अन्त में मनुस्मृति जलाई गई, उसी वर्ष के मार्च महीने में महाराष्ट्र के ’महाड़‘ (जिला-रायगढ़) नामक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकरजी के नेतृत्व में एक तालाब पर सामूहिक रूप में पानी पीने का साहसी सत्याग्रह किया गया। परिणामस्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज क्षुब्ध हो उठा। ’ज्ञानप्रकाश‘ समाचार पत्र के 27/3/1927 के अंक में दिये गये समाचार के अनुसार 21 मार्च 1927 को वह तालाब तथाकथित वेदोक्त विधि से शुद्ध किया गया। उसी समय सवर्ण समाज द्वारा अस्पृश्य समाज की प्रतिशोधात्मक भावना से मारपीट भी की गई। व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में अनुभूत इस प्रकार की घटनाओं से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर अतिशय दुःखी थे। उन्हें इस बात का दुःख था कि अस्पृश्य समाज को एक सामान्य मनुष्य के नाते जो जीवन जीने का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए, वह भी उसे मिला नहीं है।


जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद

मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –

2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।


जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद

मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –

2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।