गुण श्रेष्ठ है या जाति श्रेष्ठ?

(डॉ अम्बेडकर जी द्वारा डी. ए. वी. कॉलेज-लाहौर के संचालकों का अभिनन्दन)

”एक बार की बात है, नागपुर कॉलेज में पढ़ रहा एक ’महार‘ विद्यार्थी प्रधानाचार्य के पास गया तथा अपने घर की ओर लौट जाने की अनुमति माँगते हुए उसने उनसे कहा कि-’ब्राह्मण से हमारा झगड़ा हो गया है और मैं एकाध ब्राह्मण की हत्या कर सका तो यह समझूँगा कि मेरा जन्म सार्थक हो गया है।‘ यह इस बात का प्रमाण है कि पददलित, पीड़ित, व्यथित, युवा दलित सुशिक्षित हो तो उसके मन में क्या-क्या और कैसे-कैसे भाव उत्पन्न हो जाते हैं, यह उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट और सिद्ध है।

लाहौर स्थित एक चमार जाति के लड़के का भी इसी प्रकार का अपमान हुआ और इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं कि उसके भी मन में उक्त ’महार‘ छात्र की तरह ही विचार उत्पन्न हुए हों। पर यह आनन्द की बात है कि उसकी क्रोधाग्नि पर शीघ्र ही साम-दण्ड के जल का सिंचन हो जाने से वह शांत हो गया। यह चमार-विद्यार्थी विगत जून महीने में मॅट्रिक्युलेशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ व अग्रिम अध्ययन के लिए लाहौर स्थित दयानन्द कॉलेज में उसने अपना नाम प्रविष्ट कराया। किसी कारणवश प्रस्तुत कॉलेज से संलग्न छात्रावास में रहना उसके लिए अनिवार्य हो गया। पर ˗प्रस्तुत छात्रावास के (सभी) सौ पाचकों ने शिकायत सी करते हुए कहा कि-’चमार लड़के को न तो हम खाना परोसेंगे और न ही उसके झूठे बर्तन उठाएँगे।‘ कॉलेज के प्रधानाचार्यजी ने इन तिलमिलाए, बदहवास हुए ’ब्राह्मण्यग्रस्त‘ रसोइयों को यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि-’यह कॉलेज आर्यसमाज का है तथा आर्यसमाज जातिभेद जन्य ऊँच-नीच युक्त भेदभाव को बिलकुल भी नहीं मानता है।‘ इत्यादि तथ्यों द्वारा बहुत ही समझाने की कोशिश की, पर विविध ˗प्रकार के उपाय करने के बावजूद भी रसोइयों को प्रधानाचार्य की बात समझ में नहीं आ रही थी। वे सब हड़ताल पर उतर आये और उन्होंने यह धमकी दे डाली कि-’चमार लड़के को निकालो, अन्यथा हम सब अपना काम छोड़कर चले जाएँगे।‘ इस प्रकार संघर्ष पर उतारू हुए रसोइयों की समस्या प्राचार्यजी ने छात्रावासीय समिति के सामने प्रस्तुत की और समिति ने रसोइयों को ही सेवा कार्य से मुक्त करने का निर्णन ले लिया। इस निर्णय के कारण हम दयानन्द कॉलेज लाहौर के तत्त्वनिष्ठ, सिद्धान्त प्रिय संचालकों का अभिनन्दन करना अत्यावश्यक समझते हैं।

हिन्दू धर्म की जो लघु व्यवसाय करनेवाली कुछ शूद्र जातियाँ हैं, उनके अपने आन्तरिक, ’ब्राह्मण्यत्त्व‘ का इतना घमण्ड है कि दलित जाति के व्यक्तियों का पैसा लेकर भी उनका काम करने से वे बिलकुल इंकार कर देती हैं। धोबी कहता है-मैं कपड़े नहीं धोऊंगा, नाई कहता है-मैं हजामत नहीं करूंगा, नगाड़ेवाला कहता है-मैं बाजे नहीं बजाऊंगा। इस सबके पीछे पैसे न मिलने का कारण नहीं है, अपितु यह मिथ्या धारणा है कि दलितों की सेवा करने से हमारी प्रतिष्ठा भंग हो जाएगी।

इन लोगों को किसी न किसी ने, कभी न कभी तो यह सीख देनी ही चाहिए थी कि-’सम्मान केवल गुणों पर आश्रित है, जाति पर नहीं।‘ अच्छा हुआ कि यह शिक्षा दयानन्द कॉलेज लाहौर के व्यवस्थापकों ने दी। कुल के मिथ्याभिमान का आश्रय लेकन गुणवान् को तिरस्कृत करने की कामना रखने वाले गुणहीनों के दिलो-दिमाग को इस प्रकार ठिकाने लगाना तो अत्यन्त ही योग्य है।

हमें यहाँ इतना ही बुरा प्रतीत होता है कि ये बेचारी, नासमझ, नादान, बावली, पागल जातियाँ ’ब्राह्मण्य‘ की उपासक होने की वजह से थोथी, पाखण्डों, साम्प्रदायिक धारणाओं के कारण अपने जीवन की सार्थकता को खो रहीं हैं। जीवन के वास्तविक तात्पर्य से वंचित हो रही हैं। पथभ्रष्ट होकर अपने सही जीवनानन्द को गवाँ रही हैं, पर इन निराधार हुए रसोइयों की किसी को भी किसी प्रकार चिन्ता करने का कोई कारण हमारी दृष्टि में शेष नहीं है। कहते हैं कि स्वार्थ की परवाह न करते हुए (तथाकथित) धर्म की रक्षा करने के कारण उन रसोइयों की पीठ थपथपानेवाले ’भाला‘ पत्र के सम्पादक (श्री भास्कर बलवंत भोपटकर) उनका आजन्म पालन-पोषण करने वाले हैं।“

सन्दर्भ:- (1) पाक्षिक पत्र ’बहिष्कृत भारत‘, दिनांक 15 जुलाई, 1927, वर्ष प्रथम, अंक-81। (2) डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर आणि अस्पृश्चांची चलवल अभ्यासाची साधने। खंडदोन। डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकरांचे ’बहिष्कृत भारत‘ (1927-1929) आणि ’मूकनायक‘ (1920)। सम्पादक-वसंत मून। प्रकाशक-एज्युकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ महाराष्ट्र। संस्करण-1990। पृष्ठ 62/17, 68/6। अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।

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