सूत्र :गौणश् चेन् नात्मशब्दात् 1/1/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थं- (गौणः) अप्रधान (इस्तलाही) कथनमात्र (चेत्) यदि हो (न) नहीं (आत्मशब्दात्) उपनिषद् का तात्पर्य आत्मा से होने से।
व्याख्या :
अर्थ- यदि कहा जावे कि जिस प्रकार उपनिषदों में लिखते हैं कि तेज (अग्नि) ने ज्ञानपूर्वक कर्म किया और जल ने ज्ञान के अनुकूल क्रिया की और अन्न ने ज्ञानपूर्वक क्रिया की, इस प्रकार क्रिया करती है। क्रिया स्वीकार की जा सकती, तो महर्षि व्यासजी कहते हैं कि ऐसा मानना उचित नहीं; क्योंकि प्रवाह इस ज्ञानपूर्वक करना वा सत् से आरम्भ है, तो आत्मा का नाम है और जिसको पूर्व सिद्ध कर चुके है। यथा-इंजन की क्रिया से प्रेरित होकर यदि कोई गाड़ी दूसरी गाड़ी को गति दे, तो वह गति उस गाड़ी का धर्म न होगा; किन्तु वह क्रिया इंजन के कारण होगी। इसी प्रकार यद्यपि ब्रह्म की शक्ति सौर जगत् और सब वस्तुयें कर्म कर रही हैं; परन्तु यह कर्म उनका निजी गुण नहीं है; किन्तु जिसने उनको चलाया है यह शक्ति उसकी है। उदाहरण-एक घड़ीसाज ने एक घड़ी बनाई, जो चाबी देने से एक सप्ताह तक चलती है। चलानेवाला चाबी देकी पृथक् हो गया। अब मूर्ख मनुष्य उस अचेतन घड़ी को चलता हुआ देखकर विचार कर लेता है कि घड़ी स्वयं चलती है; परन्तु विद्वान् जानता है कि अचेतन (गैरमुदरिका) में शक्ति नहीं होती, इस कारण अपनी शक्ति से नहीं चलती; किन्तु उसको किसी चेतन चलाने वाले से गति दी हुई है।
प्रश्न- मानसिक शक्ति किसे कहते हैं और वह किस प्रकार ज्ञात की जाती है?
उत्तर- जिसमें तीन प्रकार की क्रिया अर्थात् फानान करना, उलटा करना पाया जावे और जिसमें कोई नियम स्थिर न हो, वह शक्ति मानसिक होती है। बहुघा अल्पज्ञ जीव ऐसी क्रिया के कर्ता होते हैं। वह प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञान हो जाती है?
प्रश्न-प्रबंध शक्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर-एक प्रकार की क्रिया जों नियमित अर्थात् नियम से बँधी हुई हो, जिस नियम के अंदर न्यूनता, अधिक न हो सके, वह शक्ति प्रबंधीय शक्ति कहलाती है और परतात्मा और उसके ज्ञान को प्राप्त करनेवाले मनुष्यों के कारण होती है। ब्रह्मण्ड में प्रबंधीय गति परमात्मा के कारण है और घड़ी आदि बहुत यंत्रों के अंदर विद्वान मनुष्यों के कारण प्रबंधीय क्रिया है।
प्रश्न-यदि प्रकृति के कारण आत्मा शब्द का प्रयोग किया जावे जैसा कि मन आदि के कारण आत्मा शब्द का प्रयोग हुआ है, तो क्या दोष होगा ?
उत्तर-यदि प्रकृति के कारण आत्मा शब्द का प्रयोग किया जावे , तो वह किसमें व्यापक होगी; क्योंकि परमात्मा के संसार में व्यापक होने से, जीव के शरीर में व्यापक होने से आत्मा कहा जाता है। प्रकृति की किसमें व्यापक होने के कारण आत्मा कहा जावे। यदि बिना किसी व्याप्य के व्यापक कहा जावे तो वह व्यर्थ है।
प्रश्न-यदि वह मान लिया जावे कि परताम्मा में प्रकृति व्यपक है और प्रकृति में परमात्मा व्यापक है, इस कारण दोनों को आत्मा कह सकते हैं।
उत्तर-वह विचार सत्य नहीं; क्योंकि स्थूल वस्तु में सूक्ष्म वस्तु व्यापक हो सकती है। जब प्रकृति में परमात्मा को व्यापक मानेंगे, तब परमात्मा को प्रकृति सूक्ष्म मानना पड़ेगा। जब प्रकृति को परमात्मा में व्यापक जानेंगे, तो प्रकृति परमात्मा से सूक्ष्म (लतीफ) माननी पड़गी। एक ही वस्तु में दो स्थूल और सूक्ष्म धर्म एक ही की अपेक्षा मान नहीं सकते-यह सिद्धान्त सत्य नहीं।
प्रश्न-प्रकृति को सज्ञान वा आत्मा मानने में और तो कोई भी हानि नहीं है ?