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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :स्वाप्ययात् 1/1/9
सूत्र संख्या :9

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : भावार्थ- जिस समय मनुष्य सोता है; उस समय अपने भीतर ही से आनन्द को प्राप्त करता है; बाहर के विषय उस समय इन्द्रियों से संबंध न होने के कारण उपस्थित नहीं होते, जिससे जीवात्मा का जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति दशा में संबंध होता है। वह सत् केवल ब्रह्म ही है; क्योंकि जीव के भीतर स्थूल होने से प्रकृति व्याप्त नहीं हो सकती; इसलिये प्रकृति के साथ जीव का संबंध दो अवस्थाओं में रहता है-एक जाग्रत में, दूसरे स्वप्न में। इन दशाओं में जीव कभी सुखी होता है, कभी दुःखी ; परन्तु आनन्द से शून्य होता है। केवल सुपुप्ति की दशा में जीव आनन्द को भोगता हैं वास्तव में जाग्रत और स्वप्न में भी जीव को विषयों में आनन्द ज्ञात होता है। वह वास्तव में उसी आनन्द के कारण होता है; इसजिये ब्रह्म का आनन्द तो तीनों अवस्थाओं में रहने से सत् कहाता है। और प्रकृति का प्रभाव दो दशाओं के रहने से सत् नहीं कहला सकता। इस कारण सत् के जानने से सब जानने को प्रयोजन सिद्ध होता है। वह केवल ब्रह्म ही हैं। दूसरी बात यह है कि ब्रह्म सबसे सूक्ष्म और अंतिम जानने के योग्य वस्तु हैं; इसलिये ब्रह्म के जानने से प्रभम ही सब वस्तुओं का अर्थात् जीव और प्रकृति का ज्ञान हो जाता है। इस कारण यह पच कि जिसके जानने से सब जाने जाते हैं, वह जानने योग्य वस्तु जिसको उपनिषदों ने सत् कहा है केवल ब्रह्म है; जिसका प्रभाव समाधि, सुषुप्ति और मुक्ति तीन दशाओं में स्पष्ट अनुभव होता है और अवस्थाओं में प्रकृति के संग संबंध होने से स्पष्ट नहीं ज्ञात होता है।

व्याख्या :
प्रश्न-सुख और आनन्द में कुछ भेद है या सुख और आनन्द दोनों एक हैं ? उत्तर-सुख वह होता है जब प्रकृति मन किसी विषय के साथ संबंध पैदा करके कुछ समय के लिये स्थिर होता है और मन के मलीन और स्थिर होने से उसके अंदर से ब्रह्मनन्द की मध्यम-सी झलक होती है; जिस प्रकार मलीन चिमनी के अंदर से प्रकाश की झलक दृष्टि आती है। आनन्द वह है जब मन के शुद्ध होने से या मन के न होने से जीवात्मा ब्रह्म से साक्षात् आनन्द गुण को ग्रहण करता है। इस कारण सुख और आनन्द दोनों पृथक् है। सुख अनित्य है और आनन्द नित्य है। प्रश्न- जब समाधि, सुषुप्ति और मुक्ति में ब्रह्म का आनन्द प्राप्त होता है, तो इन तीनों में भेद क्या है ? उत्तर- जब शरीर सहित और ज्ञान सहित जीव को ब्रह्म का आनन्द मिलता है, तो उस दशा का नाम समाधि है और जब शरीर सहित और ज्ञान रहित जीव को ब्रह्म का आनन्द मिलता है उस दशा का नाम सुषुप्ति है और जब ज्ञान सहित और शरीर रहित जीव को ब्रह्म का ज्ञान मिलमा है, उस दशा का नाम मुक्ति है। प्रश्न- जीव चेतन है, तीनों दशाओं में वह आनन्द की ज्ञान से ही जान सकता है, परन्तु सुषुप्ति में ज्ञान रहित तुमने बतलाया है, इस कारण उस समय आनन्द नहीं हो सकता। जब आनन्द प्राप्त नहीं हुआ, तो पहले को पक्ष सत्य नहीं। उत्तर- गुणों का ज्ञान दो अवस्थाओं में होता है-एक उस समय, जब गुण और गुणों दोनो ज्ञात हो अर्थात् हमारे सापने कस्तुरी रखी हुई हो; उस समय चक्षु से हम कसतूरी को नाफा देखते हैं और नासिका से उसकी सुगन्धि का अनुभव करते हैं; परन्तु जब वही कस्तूरी मृग की नाभि में होती है तो उसको सुगन्धि गोचर होती है; परन्तु सुगन्धित वस्तु ज्ञान नहीं होती; इस कारण वह चारों ओर खोज में भटकता है। तात्पर्य यह कि कस्तूरी उसके अंदर है, अतः सुपुप्ति दशा में आनन्द का ज्ञान तो होता है; परन्तु आनन्द के कारण ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता और समाधि और मुक्ति में दोनो का ज्ञान होता है। यही कारण है कि मनुष्य नित्य-प्रति होने की दशा में ब्रह्म का आनन्द लेते हुए भी उसकी सत्ता से अनभिज्ञ होते हैं; उनको जितना प्रेम संसार की तुच्छ वस्तुओं में है, वह ब्रह्म में नहीं होता। प्रश्न- जहाँ योगदर्शनकार ने लिखा है कि जब ज्ञान का अभाव अर्थात् शून्यता होती है, मन की उस वृत्ति को निद्रा कहते हैं। उत्तर- यहाँ योगकार का प्रयोजन बाहर के ज्ञान से वंचित होना है। उसका अर्थ यह नहीं कि आनन्द का ज्ञान भी नहीं रहता;क्योंकि चेतन जीवात्मा में ज्ञान का अभाव किसी अवस्था में नहीं होता। बाहरी ज्ञान की प्राप्ति तो वह इन्द्रियों के द्वारा करता है और स्वज्ञान अर्थात् भीतरी ज्ञान उसका स्वाभाविक गुण है। महर्षि पातंजलि का आश्य है कि जिस अवस्था में ज्ञान प्राप्त न हो, उसका नाम निद्रा है। प्रश्न- स्वयं जब सोकर उठते हैं, तो बहुधा कहते हैं कि आज मैं सुख से सोया, मुझे कुछ खबर नहीं रही, निदान अज्ञानता को स्वीकार करते है। उत्तर- वह शब्द भी प्रकट करते हैं कि बाहर की अज्ञानता और भीतरी खुख का ज्ञान था, क्योंकि बिना सुख को ज्ञात किये ऐसा किस प्रकार कह सकते हैं कि सुख से सोया। इस कारण पतंजति का यह कथन है कि ज्ञान की शून्यता होती है, यह भी उचित है; क्योंकि बाहर के ज्ञान की शून्यता होती है अथवा उपनिषद् का यह कथन कि आनन्द होता है यह भी उचित है। प्रश्न- सुख का ज्ञान निन्द्रा की अवस्था में नहीं होता, किन्तु जाग्रत अवस्था में कहता है कि आज बेखबरी से सोया; इस कारण वह सोना सुख से सोना था । उत्तर- निन्द्रा की अवस्था में सुख था। उस समय तो उसका ज्ञान नहीं हुआ; परन्तु जाग्रत की अवस्था में सुख नहीं था; पुनः सुख का ज्ञान किस प्रकार हो सकता है। यदि कोई मनुष्य खाते समय तो स्वाद अनुभव न करे और भोजन के घंटो पश्चात् अनुभव करे, तो उसे कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा; क्योंकि रस अनुभव करनेवाली एक रसना इन्द्रिय है और इन्द्रिय अर्थ के संबंध से ही अनुभव होता है, अंसंबन्ध अनुभव हो ही नहीं सकता। इस कारण सुख का ज्ञान तो निन्द्रा की उसी दशा में होता है। दूसरे को जागने की दशा में कहती है, इसलिये आनन्द आत्मा ही से होता है। श्रुति ने जो सत् शब्द कहा है, वह आत्मा के लिये कहा है। यह प्रत्येक मनुष्य को ध्यान देना उचित है कि सांख्य-दर्शन उपादान कारण (इल्लतेमाद्दी) की व्याख्या करता है और वेदान्त निमित कारण की; इस कारण दोनों में विरोध नहीं। जो युक्तियाँ दूसरे शास्त्र को खण्डन करती हुई विदित होती हैं, व केवल विषय के पृथक् होने के कारण हैं। उस पर युक्ति हैं।