सूत्र :हेयत्वावचनाच् च 1/1/8
सूत्र संख्या :8
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : भावार्थ- यदि प्रकृति में उपचार से सत् शब्द कहा जाता है; जैसेकि किसी समय नवीन चंद्रमा बढ़ता है अथवा दीखता न्यून है, तो प्रथम किसी मोटी वस्तु को दिखलाते हैं, जो उस और हो। जब वह देख ली जाती है, जब कहते हैं-उसके पश्चिम ओर चन्द्रमा है। प्रथम वस्तु चंद्रमा के दिखलाने के कारण बतलाई गई थी। यदि इसी प्रकार परमात्मा को, जो अति सूक्ष्म है सत् सिद्ध करने से प्रथम प्रकृति को सत् बतलाया हो, तो उचित नहीं; क्योंकि उस नशा में उस पहली का त्याग करना होता है। यहाँ प्रकृति को असत् कहीं नहीं बतलाया, इस कारण उपनिषद् में सत् शब्द सीधा आत्मा के लिये है प्रकृति के लिये नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न-उपनिषद् में बतलाया है कि केवल पृथ्वी को जानने से बने हुए सब पदार्थ ज्ञात होते हैं; इन बनी हुई वस्तुओं का नाम रूप तो विकार होने से कल्पना किया जाता है अथवा वास्तव में पृथ्वी एक वस्तु है। इस दृष्टांत से ज्ञात होता है उपादान कारण के जानने से ही सब कार्यों का ज्ञान होता है और जगत् को उपादान कारण प्रकृति है; इसलिये सत् शब्द से उपनिषत्कार का प्रयोजल उपादान कारण प्रकृति ही हो सकता है। जितने भी और दृष्टांन हैं, उपादान कारण से ज्ञात होते हैं।
उत्तर- उपादान कारण से कार्य को संबंध प्रत्यक्ष होता है, उसको बतलाने की आवश्यकता ही नहीं होती; परन्तु कत्र्ता का ज्ञान व अनुमान शब्द प्रमाण से होता है, जिसको स्वयम् कोई जान नहीं सकता। निदान शब्द प्रमाण से जिस कारण को उपनिषदों ने बतलाया है वह ब्रह्म ही है; क्योंकि वह जगत्कत्र्ता है। उस बिना उपादान कारण से न तो स्वयम् वस्तु बन सकती है; जैसे मिट्टी के बिना कुम्हार घड़े, लोटे और कुण्डे नहीं बना सकते। घड़े, लोटे, कूड़े, अपने कारण पृथ्वी का प्रत्यक्ष से स्वयम् वर्णन करते हैं, परन्तु निमित्त कारण कुम्हार के बतलाने की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार उपादान कारण पृथ्वी तो उन वस्तुओं से प्रथम थी, इनके बनकर टूटने पर भी रहेगीं वह तीन काल में रहने से सत्य है। ऐसे ब्रह्म भी सत्य है, क्योंकि उपादान कारण तो स्वयम् बना नहीं सकता। जिसकी सिद्धि हम पीछें कर आये हैं। इस कारण प्रकृति के लिये आत्मा और सत् शब्द नहीं कह गए; क्योंकि प्रकृति परतंत्र होने से त्यागने योग्य जो यह दुःख है उसका कारण है। आत्मा सुखस्वरूप् होने से त्यागने के योग्य नहीं; अतः प्रकृति त्यागने योग्य और उपनिषत्कार ने वहाँ सत् शब्द के साथ त्यागने योग्य होने का वर्णन नहीं किया; इसलिए आत्मा ही लेना उचित है; आगे और युक्ति देते हैं।
पदार्थ-(स्व) अपने में (आय्ययात्) बाहर के विषयों से पृथक होकर आनन्द लेने से।