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वेदान्त-दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वेदान्त-दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :शास्त्रयोनित्वात् 1/1/3
सूत्र संख्या :3

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पदार्थ-(शास्त्र) मनुष्य को नियमपूर्वक चलाने वाले ऋग्वेदादि शास्त्रों का (योनित्वात्) कारण होने से।

व्याख्या :
भावार्थ- ऋग्वेदादि बड़े शास्त्रों को कारण ब्रह्मा अचेतन और उपादान कारण नहीं, वरन् चेतना अथवा निमित कारण है। प्रश्न- क्या ब्रह्मा ऋग्वेदादि के अन्दर जो ज्ञान है, उत्पन्न किया है या उन पुस्तकों को लिखा है? उत्तर- ब्रह्मा ने उस ज्ञान को जो ऋग्वेदादि के अन्दर है, दिया है; इस कारण इस ज्ञान का उत्पन्न करने वाला है। पुस्तक तो चिरकाल तक पठन-पाठन के उपरान्त लिखे गये हैं; इसी कारण इनका नाम श्रुति है। प्रश्न-यह नियम है कि द्रव्य से द्रव्य उत्पन्न होता है और गुण से गुण। ब्रह्मा जो द्रव्य है, उससे ज्ञान ,गुण किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है? ज्ञान तो आत्मा को गुण है, जिसका आत्मा के साथ सम्वाय सम्वाय सम्बन्ध (लाजि़मो-मलजूम) का सम्बन्ध है, इस कारण ब्रह्मा और ज्ञान में कार्य-कारण सम्बन्ध (इल्लतो-मालूल) नहीं हो सकता। उत्तर- कर्ता दो प्रकार से होता है-प्रथम संयोग करने से ,द्वितीय वियोग करने से। यद्यपि वेद ब्रह्मा का ज्ञान गुण है; परन्तु जीवो के लिये अनंत ज्ञान में से मुक्ति के योग्य ज्ञान पृथक् करने के कारण ब्रह्मा-ज्ञान का कर्ता कहाता है; क्योंकि अपने अनंत ज्ञान में से वेदों के ज्ञान को विभाग करता है। प्रश्न- ज्ञान गुण हाने से निराकार है; निराकार अखंड होने से उसका विभाग हो नहीं सकता- इस कारण ईश्वर को वदों का कर्ता कहना उचित नहीं। यदि निराकार का विभाग अर्थात् भाग हो सके, तो ईश्वर के भी खंड हो जावेंगे। उत्तर- जिस प्रकार निराकार आकाश के घर मठादि कारणों से विभाग किया जाता है, ऐसे ही ज्ञान गुण का शब्दार्थ सम्बन्ध से विभाग होता है। इस शब्दार्थ से सम्बन्ध को कर्ता ईश्वर है। इस कारण ईश्वर वेदों को कर्ता कहाता है; किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक है, इस कारण उसके खण्ड नहीं होते। प्रश्न- जब ईश्वर सर्वप्यापक है, तो उसका गुण (ज्ञान) भी सर्वव्यापक होगा; इस कारण ज्ञान के खंड नहीं हो सकते। जब ज्ञान के खण्ड न हुए, तो विभाग कहाँ से कहलायेगा; जो वेदों की उत्पत्ति का कारण है। जब विभाग उपस्थित ही नहीं, तो ईश्वर वेदों का कर्ता किस प्रकार कहा सकता है। उत्तर-जिस प्रकार गृह बनाने से निराकार अथवा सर्वव्यापक आकाश मठकाश कहाता है और दूसरे आकाश से भिन्न सूरत वाला ज्ञात होता है; अतः वास्तव में आकाश के खंड नहीं होते; परन्तु उपाधि से घटाकाश और गृह के आकाश में भेद प्रतीत होती है और उस औपधिक भेद से भाग कहलाता है; जिससे ईश्वर वेदों का कर्ता कहाता है। प्रश्न- किन्तु गुण और गुणों का समवाय (लाजिमों-मलजूम) का संबंध होता है; इस कारण ईश्वर स्वयम् ज्ञान को पृथक नहीं कर सकता है, तो वह दूसरे को किस प्रकार दिया जा सकता है। इस कारण वेदों को ज्ञान ईश्वर जीवों को दे नहीं सकता, जिससे यह सूत्र उचित नहीं। उत्तर- ईश्वर प्रत्येक जीव के भीतर व्यापक है; इस कारण प्रत्येक जीव ईश्वर के ज्ञान को ले सकता। यदि चलने की शक्ति जीव में हो, तो वह शक्ति क्या है? मन का पवित्र होना। जिसका मन संस्कार से रहित होगा, उसमें ईश्वर के ज्ञान वेदों को प्रकाश होगा। जबकि ईश्वर आदि सृष्टि में मुक्ति से लौटनेवाले जीवों को शुद्ध मन जिसमें किसी प्रकार का संस्कार नहीं होता रहता है, उससे जीव उसके ज्ञान को अनुभव करते हैं और जीवों की अल्पज्ञता के कारण ईश्वर का पूर्ण ज्ञान तो जीवों के अंदर आ नहीं सकता। इस कारण ईश्वर जीवों केा उपदेश करता है कि तीन प्रकार की वस्तुएँ हैं-एक वह जिनको प्राप्त करने का विचार उत्पन्न होता है, दूसरे वह जिनको छोड़ने का विचार उत्पन्न होता है, तीसरी वह जो न तो छाड़नी आवश्यक है न प्राप्त करनी आवश्यक है। इसमें उदासीन वुत्ति उत्पन्न होती है; अतः प्राप्त करने और छोड़ने योग्य वस्तुओं का ज्ञान होना तो आवश्यक है, परन्तु वह वस्तु जिसका होना न होना मुक्ति का कारण नहीं और नही इससे बंधन उत्पन्न होता है, उसमें जीव उदासीन वृत्ति रखता है अर्थात् इनके जानने को यत्न करना मुख्य उद्देश्य को लुप्त कर देता है। वेदों के अतिरिक्त मनुष्य को यह अंतर नहीं ज्ञान होता कि कोन-सी वस्तु को जानना आवश्यक है, कौन-सी वस्तु के न जानने से लाभ नहीं। प्रश्न- ऐसी कौन-सी वस्तु है कि जिसके न जानने से जीव के सुख-दुःख में कोई अंतर नहीं आता। जीवों की संख्या (तादाद) के ज्ञान से कोई सुख उत्पन्न नहीं होता और न जानने से दुःख नहीं होता। ऐसे विकृति की संख्या को ज्ञान होना और न होना भी एक-सा है । ऐसे ही और भी अनेक वस्तुएँ हैं, जिनके ज्ञान से हमारे कर्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न जानने से कोई दोष आता है। प्रश्न- कोई कार्य बिना स्वार्थ नहीं किया जाता, इस कारण प्रत्येक ग्रंथकार चार अनुबंध अवश्य ही ध्यान में रखते है।-एक प्रयोजन अर्थात् एक बनाने का उद्देश्य, दूसरे अधिकारी जिसके कारण वह ग्रंथ रचा जाता है, तीसरे विषय अथात् उसके अंदर क्या विषय है, चतुर्थ संबंध अर्थात् इस ग्रंथ के विषय से क्या संबध है। यदि ईश्वर ने वेद रचे हैं, तो उनके अनंबंध क्या हैं? वेद रचने को प्रयोजन तो जीवों को तत्वज्ञान देना है; जिससे वह मुक्ति प्राप्त कर सकें। अधिकारी मोक्ष की इच्छावाले जीव है। और विषय सब सत्यविद्या; क्योंकि वेद में प्रत्येक विद्या को जीव मौजूद है और संबंध मुक्ति का परम्परा से हेतु और प्रयोजक है। प्रश्न- मुक्ति तो जीवों की होगी; ईश्वर का इसमें क्या संबंध है? उत्तर- ईश्वर का अपना तो कोई प्रयोजन नहीं; किन्तु उसका स्वभाव ही दयालु है; जिससे वह जीवों के सुख के कारण सृष्टि और वेद बनाता है। प्रश्न- ईश्वर के होने में प्रमाण क्या है, क्योंकि जिज्ञासुओं के कारण लक्षण और प्रमाण ही होतें हैं? उत्तर-ईश्वर के होने में और जगत् के करने में अनुमान प्रमाण हैं और शास्त्र वेद प्रमाण होने से शब्द प्रमाण है। वेद के बिना ईश्वर का यथार्थ ज्ञान होना कठिन है। अनुमान से सत्ता का ज्ञान होता है और शब्द और मानसिक प्रत्यक्ष से स्वरूप् का ज्ञान होता है। प्रश्न- वेद का कर्ता ईश्वर है; इस कारण ईश्वर के होने पर वेद का होना निर्भर है और ईश्वर के होने में वेद प्रमाण है; निदान अन्योन्याश्रय दोष है। उत्तर- ईश्वर की सत्ता अनुमान प्रमाण और मानसिक प्रत्यक्ष से सिद्ध होती है, इस कारण केवल वेद पर ही निर्भर नहीं; किन्तु ईश्वर के गुणों के ज्ञान के अर्थ प्रमाण है। जबकि ईश्वर की सत्ता दूसरे प्रमाणों से भी सिद्ध है, अन्योन्याश्रय दोष नहीं। जिस प्रकार पिता का होना तो पुत्र पर आवश्यक है और पुत्र का होना पिता पर; परन्तु पिता की सत्ता तो पुत्र पर आवश्यक नहीं। इस कारण अन्योनयाश्रय दाष नहीं कहाता। जो मनुष्य ब्रह्मा के बिना दूसरी वस्तु को जगत् का निमित्त कारण स्वीकार करते हैं और प्रकृति के स्वभाव को ही जगत् का कारण मानते हैं, उनकी शंका निवारण करने के कारण महर्षि वेदव्यास सूत्र को प्रस्तुत करते हैं कि जगत् का कारण ब्रह्मा ही है। वेदान्त के सर्व विद्वान अर्थात् सर्वज्ञ ज्ञानी इस पर एकमत हैं।