व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (जन्मादि) सृष्टि, स्थिति और प्रलय (अस्य) इस जगत् की (यतः) जिससे होती है, वह ब्रह्मा है।
व्याख्या :
भावार्थ- जो इस संसार को उत्पन्न करने वाला, स्थित रखने वाला और नाश करने वाला है, वही परमात्मा है- यह लक्षण परमात्मा का किया।
प्रश्न- ब्रह्मा जगत् का उपादान कारण है या निमित्त कारण या अभिन्न निमित्तोपादान कारण है?
उत्तर- ब्रह्मा जगत् का निमित्त कारण है, क्योंकि यदि उपादान कारण समझा जावे, तो यह परतंत्र और परिणामी होगा और रूपांतर किसी वस्तु का स्वतंत्रता से नहीं होता। इसमें दृष्टांत का अभाव है; परन्तु ब्रह्मा एक रस और स्वतंत्र है। इस कारण ब्रह्मा को निमित कारण मानना उचित है।
प्रश्न-सूत्र में जो शब्द है, उनसे ब्रह्मा का उपादान कारण हाने पाया जाता है और दूसरे आचार्य भी-वही ही अभिन्न निमित्तोपादान (इल्लते-माद्दी) हैः; वह ही निमित्त कारण (इल्लोफाली) है- ऐसा मानते हैं। इस कारण अभिन्न निमित्तोपादान कारण ही ब्रह्मा को मानना उचिात है।
उत्तर-उपादान कारण (इल्लते-माद्दी) तो सदा परतंत्र और परिणाम वाली (मुनरौयर) होती है और निमित कारण (इल्लते फायली) स्वतंत्र (आजाद) और. गैरमुतरीयर होती है; इस कारण एक ही वस्तु है। दो प्रकार के विरोधी गुण नहीं रह सकते और ऐसा कोई दृष्टांत नहीं ज्ञात होता, जहाँ उपादान कारण (इल्लते-माद्दी) और निमित्त कारण (इल्लते-माद्दी) एक हो और जगत् को देखने से सिद्ध होता है कि ब्रह्म इसका उपादान कारण नहीं; क्योंकि उपादान कारण के गुण कार्य में आया करते है अर्थात् कारण के गुण कार्य में पाये जाते है; परन्तु बह्म के गुण जगत् में पाये नहीं जाते; इस कारण ब्रह्म जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण मानना ही उचित है।
प्रश्न- अभिन्न निमित्तोपादान अर्थात् एक मानने में भी दृष्टांत का अभाव नहीं। मकड़ी के उदाहरण से आचार्य लोग अभिन्न-निमित्तोपादान सिद्ध कर चुके हैं। मकड़ी बाहर से कोई चीज़ नहीं लेती; किन्तु स्वयं भीतर जाला उत्पन्न करती है अथवा भीतर ही लय कर लेती है।
उत्तर- जो मनुष्य अज्ञानी हैं, उनकी समझ में यह दृष्टांत अभिन्न निमित्तोपादान के लिये हो सकता है। ज्ञानी के विचार में तो यह भिन्न निमितापादान के लिये हो सकता हैं। ज्ञानी के विचार में तो यह भिन्न निमित्तोपादान के लिये हो सकता है। ज्ञानी के विचार में तो यह भिन्न निमित्तोपादान का उदाहरण है; क्यांकि मकड़ी ककी आत्मा चेतन है और जाला जड़। जड़ और चेतन को एक मानना मूर्खों का काम है। यदि मकड़ी का शरीर और आत्मा एक होते, तो कभी मृतक मकड़ी दृष्टिगोचर न होती। मृतक मकड़ी बतलाती है कि इससे चेतन आत्मा पृथक है; अतः शरीर मकड़ी का जाले का उपादान कारण है और आत्मा निमित्त कारण है; अतः इस दृष्टांत से निमित्त और उपादान कारण पृथक-पृथक सिद्ध हैं, जो अभिन्न-निमित्तापादान कारण-वादियों के मत को खण्डन कर देते हैं। एक रस ब्रह्म जगत् का उपादान कारण हो ही नहीं सकता; क्योंकि उपादान होने से परिणामी सिद्ध होता है चेतन ब्रह्मकत्र्ता वस्तु का उपादान कारण हो ही नहीं सकता; इस कारण इस सूत्र जड़ में ब्रह्म को जगत् का निमित्त कारण बतलाना ही उचित है।
प्रश्न-हम उपादान कारण इस भाँति नहीं मानते, जिससे एक रस (गैरमुतगैयर) ब्रह्मा में परिणम आ जावे, किन्तु हम तो विवृतापादान मानते है। जैसे भ्रम से रज्जु (रस्सी) में सर्प विदित होता है; कोई रज्जू बदलकर सर्प नहीं हो गई, किन्तु भ्रम से सर्प ज्ञात होता है। ऐसे ही ब्रह्म बदलकर जगत् रूप् नहीं हो गया, किन्तु भ्रम से जगत् रूप ज्ञात होता है।
उत्तर- ऐसा मानना भी उचित नहीं; क्योंकि विवृत समान आकृति अथवा समान धर्म में होता है अर्थात् जिसकी आकृति अथवा गुणों में समानता हो और पहिले उस वस्तु का ज्ञान भी हो, तब भ्रम होता है; परन्तु भिन्न आकृति और गुणों में भ्रम नहीं होता। रस्सी में सर्प का भ्रम तो हो सकता है; परन्तु हाथी-घोड़े का भ्रम नहीं हो सकता। सिप्पी में चाँदी का भ्रम तो हो सकता है; परन्तु लोहा और सुवर्ण का भ्रम नहीं होता। अतः जबकि ब्रह्म और जगत् में न तो आकृति मिलती है, न धर्म, तो ब्रह्मा में जगत् का मान किस प्रकार हो सकता है। दूसरे विवृत किसी को किसी का किसी से होता है और उसमें कोई भी होता है। जैसे मनुष्य को सर्प का भ्रम रस्सी में थोड़ा प्रकाश थोड़े अंधकार के कारण हुआ, जिससे स्पष्ट प्रकट होता है कि बिना चार वस्तुओं की विद्यमानता के भ्रम या विवृत आदि हो ही नहीं सकते, परन्तु विवृतवादियों के पास सिवाय ब्रह्म के कोई वस्तु नहीं फिर यह विवृत किस प्रकार हो सकता है। जगत् संसार का ब्रह्म निराकार जगत् जड़ ब्रह्म चेतन तात्पर्य यह है कि भ्रम को कोई सामान ही नहीं और न सर्वज्ञ ब्रह्म को भ्रम हो सकता है; क्योंकि न दोपहर के प्रकाश में रज्जु का सर्प ज्ञान होता है, क्योंकि उस समय रज्जु स्पष्ट दिखाई पड़ती है और बिलकुल अंधकार में भ्रम होता है, क्योंकि उस समय कुछ दिखाई नहीं आता। इसलिये भ्रम उस समय होगा, जब कुछ अंधकार और कुछ प्रकाश हो। इससे स्पष्ट प्रकट है कि न तो सर्वज्ञ ब्रह्म को भ्रम हो सकता है न प्रकृति को; जब कभी भ्रम होगा, तो अल्पज्ञ जीव को होगा। अविधावादियों के मत से ब्रह्म में जब उपाधि को जब जीव बने और जब तक ब्रह्म से जीव न बने तक अविधा हो नहीं सकती; इस कारण अन्योन्याश्रय दोषयुक्त न होने से यह सिद्धान्त असत्य है।
प्ररून- क्या वेदान्त का सिद्धान्त विवृतवाद हो सकता है?
उत्तर- वेदान्त का तो यह सिद्धांत ही नहीं। वेदान्त का सिद्धान्त तो जीव और ब्रह्म में वेद हर प्रकार से सिद्ध है।
प्रश्न- तुम्हारे पास क्या प्रमाण है कि जीव और ब्रह्म का वेद वेदान्त मानता है। वेदान्त के ग्रंथों में तो यह लिखते हैं कि मैं उस बात को कि जो करोड़ों ग्रंथो में तो यह लिखते हैं कि मैं उस बात को कि जो करोड़ों ग्रंथों में लिखा है अर्द्ध श्लोक में कहूँगा। वह यह है कि ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है और जीव ब्रह्म ही है उससे पृथक् कोई वस्तु नहीं।
उत्तर- वेदान्ती जो ब्रह्म का स्वरूप बतलाते है वही भेदवाद का प्रमाण है। जब वेदान्तियों से ब्रह्म का स्वरूप पूछा, तो बतलाया ब्रह्म सत्य हैं; परन्तु यदि ब्रह्म सत्य होता और सब मिथ्या होते, तो लक्षण भी समाप्त हो जाता; क्योंकि जीव और प्रकृति भी सत्य थे; इस कारण लक्षण अति व्याप्त हो गया अर्थात् यह गुण जीव और प्रकति में भी पाये गये; इसलिये ब्रह्म का लक्षण किया सत्-चित् जिससे अचेतन प्रकृति हो पृथक् हो गई; परन्तु जीव में फिर लक्षण अति व्याप्त हो गया; क्योंकि जीव भी सत् चित् था; इस कारण ब्रह्म का लक्षण सच्चिदानंद किया। अत; ब्रह्म का लक्षण ही तो भेद बतलाया है। श्लोकवाले का अर्थ यह है कि मुक्ति के वास्ते ब्रह्म तो सत् साधन है और जो जगत् को आनन्द का साधन मानते हैं वह मिथ्या है। ब्रह्म के सर्वव्यापक होने से वह कभी तीव से परे अर्थात् दूर नहीं, किन्तु इसके अन्दर व्यापक हैं इस श्लोक में तीन मतों का खण्डन है- एक तो जगत् के आनन्द का साधन मानने वाले प्रकृति के उपासक नास्तिक हैं, दूसरे जो ब्रह्म को एक देशी मानकर उसके पास जाने के लिए दूतों (पैगम्बरों की आवश्यकता बतलाते हैं, तीसरे जो बौद्ध, जैनो इत्यादि जीव का ब्रह्म हो जाना बतलाते हैं।
प्रश्न- यदि ब्रह्म और जगत् में समान आकृति के होने से जगत् विवृत नहीं, तो हमारा ऐसा मत है कि जगत् माया का परिणाम और अवष्ठान चेतन का विवृत जीव और ब्रह्म में समान आकृति और समान धर्म हैं ही; इस कारण विवृत इसके होने में कोई शंका नहीं।
उत्तर- यदि तुम माया को नित्य मानकर जगत् को इसका परिणाम मानते हो, तो तुम्हारे सिद्धान्त की हानि हो गई; क्योंकि दूसरी वस्तु नित्य हो गई। यदि माया को अनित्य मानकर उसका परिणाम बतलाते हो, तो माया का उपादान कारण क्या है? यदि कहो ब्रह्म तो ब्रह्म में भी वही दोष आ जायेँगें, जो जगत् का उपादान कारण (इल्लते-माद्दी) मानने से आते हैं। यदि कोई माया का और कारण मानोगे, ता उसके लिये भी यह ही प्रष्न होगा कि वह नित्य है वा अनित्य? नित्य मानते में तुम्हारे सिद्धान्त की हानि होगी और अनित्य मानने में अनवस्था दोश आ जायेगा। निदान इन दषाओं में तुम्हारा मत गिर जायगा। जीव को ब्रह्मा का विवृत मानना भी उचित नहीं; क्योंकि जिस स्वरूप् सर्प का रज्जु में भ्रम होता है, वह पहिले सिद्ध होता है। ऐसे ही यदि पहिले जीव को सिद्ध मानोगे,ता विवृत जीव को मानना निपट मूर्खता होगी। यदि पहिले सिद्ध न मानोगे, तो स्मृति ज्ञान न होने से हो नहीं सकता। तीसरे जीव का ब्रह्मा में भ्रम किसको हुआ? यदि कहो ब्रह्मा को, तो उसकी सत्ता ही नहीं वह तो भ्रम से भान होता है जिसको मालूम होता है वह जीव से पृथक् है। इस कारण यह सिद्धान्त भी सत्य नहीं; केवल अपंडितों को चक्र में डालने के लिये गढ़़ा गया है।
प्रश्न -हम माया को अनिर्वचनीय मानते है और हमारी माया ऐसी है कि इसे हम न तो असत् कह सकते हैं और न सत्; अतः इस दशा में कोई दोष नहीं आता।
उत्तर- माया को अनिर्वचनीय कहता उचित नहीं; क्योंकि माया को किसी प्रमाण से मानते हो वा बिना प्रमाण ही मान लिया। यदि कही प्रमाण से जान लिया है, तो वह प्रमेय है और प्रमाता प्रमेय को लक्षण और प्रमाण से जानता है। इस कारण वह अनिर्वचनीय नहीं रहे। यदि उसकी सत्ता में कोई प्रमाण नहीं, तो उसका होना ही क्यों मानते हो?
प्रश्न- हम माया को सत्-असत् से विलक्षण इस हेतु मानते हैं कि सत् में तो परिणाम एक रस होने से नहीं होता; परन्तु माया में परिणाम है, इस कारण वह सत् नही कहता सकती। असत् माने से उसका कारण मानना पड़ता है; परन्तु माया का कोई कारण नहीं, इसलिये अनित्य अर्थात् असत् भी नहीं। अत; सत्(नित्य) असत् (अनित्य) से विलक्षण मानते हैं, जिसे अनिर्वचनीय कहते हैं।
उत्तर- परिणाम किसी वस्तु को अनित्य सिद्ध नहीं कर सकता; किन्तु वह कार्यवाही वस्तु अनित्य होती है। इस कारण परिणाम होने से भी प्रकृति सत् से पृथक् नहीं हो सकती। यदि प्रकृति में विकार होता, तो वह असत् कहलाती; परन्तु प्रकृति में विकार नहीं।जिस प्रकार जीव आत्मा अन्य शरीरों में जाकर उस रूप् को हो जाता है; परन्तु स्वरूप् की न्यूवता अधिकता न होने से अनित्य नहीं होता; क्योंकि उसमें विकार नहीं आता। इस प्रकार परिणाम हाने पर भी प्रकृति असत् नहीं हो सकती।
प्रश्न- विकार और परिणाम में क्या अतंर है और विकार कितने प्रकार के हैं।
उत्तर- जिसमें रूप् का परिवर्तन हो और परमाणुओं में न्यूनता अथवा अधिकता न हो, उसे परिणाम कहते हैं और जिसमें परमाणुओं को परिवर्तन हो, उसे विकार कहते हैं। वह छः प्रकार के है- उत्पन्न होना, बढ़ना, एक सीमा तक बढ़कर रूक जाना, दशा परिवर्तन करना, घटना और नाश होना। यह छः विकार है।
प्रश्न- जबकि विकारों में दशा-परिवर्तन है और परिणाम में भी रूप को परिवर्तन है, तब प्रकृति असत् कहला सकती है?
उत्तर- जब परमाणुओं बड़ी रहे और रूप् बदल जावे, जो उसे परिणाम कहते हैं। और जब परमाणुओं के परिवर्तन और परिणाम एक नहीं। इससे प्रकृति असत् नहीं हो सकती।
शंका- ब्रह्मा ताक जगत् का उपादान कारण मानने से वह परतंत्र और अचेतन होता है और निमित्त चेतन होता है।
समाधान-इस भ्रम को दूर करने के कारण सूत्र कार कहते हैं।